________________
अध्यात्म बारहखड़ी
चरन कमल को भमर गुंजरव जो करै,
सो पावै निजवास परम रस जो धेरै। गंधपूति इह देह महा दुरगंध है, . दै . जान . मी घरमांच है । गंधहस्ति सम देह सुगंध जु जे धरै,
ते सब देव जु आय पाय तेरे पर। गः कहिये स्वर नाम धारि स्वर गांवहि,
सुर नर नाग मुनिंद तोहि प्रभु ध्यावहि ।। ५२ ।। गः कहिये फुनि गाय समूहो लोक मैं,
गायपुत्र से लोक लगे त्रिण थोक मैं। कण रूपा तुव भक्ति गहै न रहै उही,
ग: कहिये गंधर्व सर्व गांवें तू ही ।। ५३ ।। गः कहिये गाथांनि कौह प्रभु नाम है,
सव गाथादिक छंद कहै तू राम है। नाथा तो सौ तू हि नही को दूसरौ,
तो विनु सव संसार लगै मुहि धूसरौ ।। ५४ ।।
अथ वारा मात्रा एक सवैया मैं।
- सवैया - ३१ – गरव को हारी तूज गाध नांहि लहै,
__ पूज गिनती जु नाहि तेरे विभव की नाथ जी। गीर्वाण नायक तू गुरनि को गुर सदा,
गूंथे द्वादशांग देव गूढ़ अति साथ जी। गेह नाहि देह नांहि गैल तेरी लोक सघ,
गोपती जु गोधर तू ईस वड़हाथ जी। गौण मुख्य सर्व भास ग्रंथि भेद गः प्रकाश,
भवदुख पावक वुझायवे कौ पाथ जी ।। ५५ ।।