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अध्यात्म बारहखड़ी
वंदि अचेतन के परयौ, मैं घीघांऊं नाथ। मेरी कूक सुनौं प्रभू, लेहु आफ्नै साथ ।। २३ ।। घीस्यो मोकौं जगत मैं, कर्म मिले अतिभेद। अध ऊरध मधि लोक मैं, दियो बहुत इन खेद ॥२४ ।। धुण है मोकौँ विधि लगे, कियो सुनिकौँ स्वामि। इनौं मोहि छुपाय प्रभु, तू है अंडा ॥ २५ ॥ घुग्ध होय कूडे रम्यों, कियो मोहमद पांन। अव तू दै निज भक्ति प्रभु, करि सचेत भगवान ।। २६ ।। घूक समान जु हौं प्रभू, नहि लखियो तू भांन। हमरी चक्षु उघारि प्रभु, तू अनंत गुनवांन ।। २७ ।। धूक पणौं हरि देहु जू, चकवे को हि स्वभाव । चकवौ चाहै दिवस कौं, मैं चाहौँ तुव पाव॥२८॥ घूनडता मुझ मेटि तू, दै निहकपट स्वभाव। घूनड लौकिक भाष मैं, कपटी कुटिल कुभाव ।। २९ ।। घूमत घूमत हौं फिस्यौ, महामोहमद पीय। हमरी घूम मिटाय प्रभु, तू तारक अदुतीय ।। ३० ।। धू कहिये आगम विषै, पीडा नाम प्रसिद्ध । हमरी पीर मिटाय प्रभु, तू दयाल अति सिद्ध ।। ३१।। घूर्यमाण इन अघनितें, हौं दुखिया जगजीव । सुखदाई संसार को, दुख हरि नाथ अतीव ॥३२॥ घेरा मांहि जु हौ पस्यौ, तू घेरा तैं कादि। र्दै निज भाव सुलक्षणां, पासि हमारी वाढि॥३३॥ घेवर बैनी आदि दै, तजि कैं जिह्वा स्वाद । रूखाटूका पाय कैं, करिहैं तोकौं याद ॥३४॥ धैं तेरी चोधैं प्रभू, सुर नर मुनिवर ईश। तो सौ देव न दूसरौ, तू हि सही जगदीस ।। ३५॥