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अध्यात्म बारहखड़ी
रमणीको रस मूल तू, रमि जु रहयो सब पांहि । रमैं आप माहे तु ही, रज रहितो सक नाहि ।।१२।। रती न जाकी सी धेरै, तीन लोक मैं और। रतिपति जीत्यो जाहि नैं, सो त्रिभुवन को मौर॥१३॥
... सवैया ३१ - .... रघुवंस आदि केई म को लधारक नु,
रघुनाथ नाथ तू ही तीन लोक नाथ है। रणधीर रणवीर रद भांजै के जु ज्ञान
चाप धारक कर हि तुव साथ है। र तोहि इंद चंद र₹ जु मुनिदं सव
रटै अहमिदं तू, जिनिंद बद्ध हाथ है। तारै भवसागर तें, नागर निरंजन तू, भव दुख पावक वुझायवे कौं पाथ है॥१४ ।।
- दोहा - रव कहिये उच्चार कौं, नाम उच्चारै तेहि । रहसि लहै निज रूपको, भव जल कौं जल देहि॥१५ ।। रा कहिये धन कौं सही, निज धन तू हि जु आदि। राग रहित अविकार तू, राम सुनाम अनादि ॥ १६ ॥ रामा तेरै नांहि को, रमा न रामा होय । रमा रावरी शक्ति है, राधा कहिये सोई॥१७॥ राधा दूजि नाहि को, निज सत्ता है जोई। शिवा आर्हती शक्ति जो, सो गोपी हू होय ।। १८॥ राका पूरणमासि है, राका कौ है चंद। तैसौ सीतल चित्त करि, तोहि भसँ जु मुनिदं ।। १९॥ राजा सब को तू सही, राव जगत को तू हि। राय न तो सम दूसरौ, रावर एक प्रभू हि ।। २० ॥