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अध्यात्म बारहखड़ी
राचै तो मैं जोगिया, रारि भारि सव त्यागि। रासि गुननि की तू सही, रहिये तोमैं पागि ।। २१ ॥
- कुंडलिया छंद -- राख समाना भूमि जोरे, राखी सहै न कोटाः . . . . . : .. .....
राग करें यां सौं जिकै, ते मति हीन जु होय। ते मति हीन जु होय, राति दिव यामैं पागे,
धंध भाव मैं सचि, तोहि ध्यानै न अभोगे। चाह तोहि सुभव्य, तेहि पांथें निजग्याना, चाहैं मूरख लोक भूति जो राख समाना ।। २२ ।।
..... हाहा - राजस तामस सात्विका, तू धारै नहि एक। निज स्वभाव राजिंद तू, धारै अतुल विवेक ।।२३।। राष्टर देस जु नाम है, देस असंखित होय। तेरै लोक प्रमाण तू, ज्ञान मात्र है सोय॥२४॥
- छप्पय - त्रिभुवन चंद जिनंद, राहु सम मोह न गहई,
क्षयी भाव कबहू न, तोहि नहि कलमष लहई। तू निकलंक दयाल, तिमरहर भ्रांति निसाहर,
जमैं निसाकर तोहि, जडत हर तू प्रभाकर । अस्त भाव कवहू न होई, उदयरूप निति देखिये,
नहि रक्त पीत सित स्याम तू, हरित न अवरण लेखिये।। २५॥ रिय कर्म अति भर्म, नाथ तुब दास जु देखें,
रिपु नहि इनसे और, रीति इनकी हि जु पेखें। रस रीसि जु _ भाव, इनहि उपजाये मोमैं,
नादि काल तै देव, मोहि डारयो इनि दो मैं। विषयकवाय लगाय मो कौं, दाबे अति गुन निज मई,
जद्धमय पंजर मांहि मूदिवि, भटकायो चहुगति दई ।। २६ ॥