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अध्यात्म बारहखड़ी
विषय स्वाद कौं लागि मैं जु रोरी अतिभाषी, लखियो नाहि जुरोहित की सी अब दें भगति दयाल, टारि सवही अधकर्मा,
रीझ खीजि मुनि त्यागि तोहि ध्यांवें तु हि पर्मा । रीझे तेरे रस जु मांहैं, छके रावरी क्रांति मैं, रीझे कर्म सबै हि तिन पैं, जे आये तुव पांति मैं ॥ २७ ॥
सोरठा
रीता रहें न दास, भरितावस्थ स्वरूप हैं ।
तू पूरण गुन रास तो सौ तू हि जु और नां ॥ २८ ॥
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सवैया रुकमाभ उज्जल तू रुकम नहीं जु तुल्य. तेरी सी विमलता जू तू ही एक धार ही । तेरी रुख साच और झुठी सव दिसि नाथ,
रुज हर रुग हर करै भव पार ही । रुकै नांहि रोक्यो कभी व्यापि रह्यो सवमांहि,
रूपे मुनि तोहि मांहि, लख्यो तू हि सार ही । रुणक झुणक करि नांचें इंद चंद तेर,
रुचि क समूह तू हि तारक अपार ही ।। २९ ।। रु तू जु भव्यनिकों, अभविनि र्को रुचै नांहि,
तेरी रुचि सरधा प्रतीति देहु मोहिजी । रूप ही अरूप तेरै, तू अरूप हैं स्वरूप,
तोसौं रूपवान कोऊ दूसरों न होहि जी । चेतना स्वरूप तू हि आनंद स्वरूप नाथ,
अटल अवाधित रह्यौ जु अति सोहि जी । रूढ परसिद्ध नांम तू हिं परसिद्ध रांम
गूढ़ अति तू हि देव वनैं सब तोहि जी ॥ ३० ॥
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