________________
२३८
अध्यात्म बारहखड़ी
- सोरठा - रूढि अविद्या रूप, तेरे दास न आदरै। है तौं सौं इक रूप ध्यां अहनिसि निज विषै।। ३ ।। रूढ कूद इह जीव, भयो अविद्या वाय तैं। कर जु शुद्ध अतीव, तू हि मिथ्यावाय हरि।। ३२ ।।
- छंद त्रिभंगी - प्रभू कबहु न रूठे, कबहू न तूढ़, अमृत बूढ़, उर माह। अतिकरत निहाला, अति हि विसाला, जगत प्रपाला, जग चाहैं। सव तेरे दासा, तू हि प्रकासा, परम विलासा, रस रूपा । अति वैरागी तू, वडभागी तू, अनुरागी तू, करि भूपा ।। ३३ ।। नहि रूसि जु जानें, रीसि न आने जड वुधि भा तू गिप्ता। चीकन नहि रूखा, है नहि लूखा, त्रिषित न भूखा तू त्रिप्ता। रेचक विषयनिकी, जीवनि मुनि की, हित भविजन की, तुव वानी। सव रीति प्रकास, कुमति विनासै, तत्व विभासै भय भांनी ॥ ३४ ॥
- सोरला .. रेचक पूरक और, कुंभक तू हि प्रकासई। सव योगिनि को मौर, योगसिद्ध परसिद्ध तू॥३५ ।। रेत समान विभूति, जग की तजि योगीश्वरा । पांवें निज अनुभूति, तेरी भक्ति प्रसाद तैं ॥३६ ।। जैसे रेसम कीट, बंधे अपनी लाल तैं। तैसैं जिय धरि कीट, बंधै जगवासी जना ॥ ३७॥
- सवैया - ३१ - रेवरा समान इहै जग, भरयो कूरे सौंहि,
तामैं जीव लेटियो सुमोह मदिरा पियें।