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अध्यात्म बारहखड़ी
रम्य रमणीक तूही, नांहि भव रूप तू ही, धारें मुनिराय नांम, तेरौ आपुनैं हियें। कूरे तैं निकास तू ही, मोहमद्य दूर करें, ज्ञान की प्रवोधक तू शक्ति आत ही लियें । रेत करि डारै कर्म भूधर कौं दास तेई
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भक्ति भाव वज्ररूप, जेहि कर मैं किये ॥ ३८ ॥
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सोरठा
रे रे चित्त अवांन, भजऊ भजऊ जगदीस कौं । धारहु क्यों न सयन, जाकरि भव भरमण मिटै ॥ ३९ ॥ ₹ रै लंपट जीव, विषयनि मैं लपट्यों कहा। क्यौं न भजे जग पीव, जाकरि निज रस पाइए ॥ ४० ॥ शेर दरिद्र जु नांम, रो भय को नाम जु कहैं । तू दरिद्र हर रांम रोग महा रागादि हरे रोप न चाप अनादि, रोकि रहे भव मांहि मोहादिक राक्षस महा । ते ही तुव पुरि जांहि, जे इनकों नांसें मुनी ॥ ४३ ॥
भयंकरा ।। ४१ ।।
भय कौं तू हि तू हि अति धनुद्धर तू अदभुता ॥ ४२ ॥
बैद्य तू ।
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भजें ॥ ४४ ॥
रस ।
रहयौ ।। ४५ ।।
रोष न दोष न राग, तेरे तू अविकार है । वीतराग वडभाग, तेहि जेहि तोकौं रोचिक होय मुनिंद, जपें तोहि तजि रोस तो सौ नृ हि जिनिंद, रोम रोम व्यापि जु रोहणि आदि नक्षत्र, संवें सत्र तोकौं प्रभू । नक्षत्री जु पवित्र, तो सौ तू ही और नां ।। ४६ ।। रोहिणी व्रत्त जु आदि व्रत अनेक कहै तू ही । तू भगवंत अनादि, रौरवादि टारक तू ही ॥ ४७ ॥ रौरव नकं जु नांम, तू नरकांतक देव हैं।
सर्व कष्ट हर राम, धांम ऋद्धि कौं तू सही ॥ ४८ ॥
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