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अध्यात्म बारहखड़ी
रौदिक सार्थिक सर्व, शब्द प्रकासै नाथ तू। ..... . . . . हो सोह.... को, गट; . रंगनाथ तू रंगधर ।। ४९ ।।
रंकनि तैं प्रभु राव, करै तू हि दे पूजि पद। ग्क ते हि भव भाव, धारै मिथ्या द्रिष्टि जन॥५० ।। सम्यगदृष्टि राव, और न राब त्रिलोक मैं। तू रावनि को राव, रंजित नहि रागादि मैं॥५१॥ रंग विरंग जु नाहि, तेरे रंग स्वभाव को। आतम अनुभव मांहि, मगन रहैं तेरै जना ।। ५२॥ रुधैं कर्म सवै हि, धर्म शुकल परगट करें। तोते भर्म दबैहि, रंध्र न तेरे एक है।। ५३॥ रंध्र कहावै छिद्र, छलछिद्री तोहि न लखें। तू निरबंद अछिद्र, क्षुद्र न पावै भेद तुव॥५४॥ रंच न भाव विकार, थारै अविकारी तु हो। रंग महल ततसार, तहां विराजें धीर तू।। ५५ ।। रंभा थंभ समान, भव तन भोग असार ए। इनतें प्रीति अयांन, करें तोहि ध्यांवें नहीं ॥५६॥ रंग समाधि स्वभाव, और कुरंग सवै कहे। चंचल कायर भाव, इनमें निश्चलता नहीं ॥५७॥ र; कहिये अति माहि, नाम काम को प्रगट है। काम क्रोध कछु नाहि, तिनतें भक्ति न पाइए ।। ५८ ।। र: कहिये फुनि नाथ, अनि नाम सिद्धांत मैं। तपति हरण तृ. पाथ, कर्म दहन अगनि हु तुही ।। ५१।। कहैं वज्र को नाम, र: ग्रंथनि मैं पंडिता । वत्री पूर्जे गंम, तो कौँ तन मन लायकरि ।।६० ॥ शब्द नाम बुद्धिवांन, र: भाई गंधनि विर्षे । शब्दातीत सुजांन, शब्द अर्थ भासै तु ही॥६१॥