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अध्यात्म बारहखड़ी
र: भाष्यौ फुनि रूप, रूपी तु न अरूप है। रूप अरूप अनूप, तू चिद्रूप अमूरती॥६२ ।। र: रक्षण को नाम, रक्षक थिर चर को तूही। अति विश्रांम सुधाम, गुन अनंत भगवंत तू ।। ६३ ।।
अथ बारा मात्रा एक कबित्त मैं।
- सवैया - रतिपति जीतें तेरे दास, राग दोष हर,
रिपु नांहि इनसे कदापि तीन काल मैं। रीति सर्व धर्मनि की, तु ही जो प्रकार,
देव रुलैं नाहि, तेरे जन रा0 गुन माल मैं। रूप को निवास तू ही, रेचकादि भासै विधि,
रैनि सम भ्रांति हरै, त न जग जाल मैं। रोर हर रौरवादि दार तृ हि रंग नाथ,
र: प्रकास तू हि नांहि शुभाशुभ चाल मैं॥६४॥
__ - कुडलिया छंद - स्वामी तेरी रम्यता, रमा जु कहिये सोइ,
रति अति जु दोऊ नहीं, जो चिन्मुद्रा होय । जो चिन्मुद्रा होय, वस्तु कैवल्य स्वभावा, ___ भेदभाव नहि कोइ, शुद्धता शक्ति प्रभावा । भवा भवांनी भूति, ऋद्धि सिद्धि जु अतिनांमी,
भाषै दौलति ताहि, रम्यता तेरी स्वामी॥६५ ।। इति रकार संपूर्णं । आगैं लकार का व्याख्यान करै है।