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अध्यात्म बारहखड़ी
- शोक - ललितं लालसातीतं, लिखितं गणनायकैः। नीलं स्नीलाधरं धीरं, नहि लुप्तं च कर्मणा ॥१५॥ लूनिता शत्रवो येन, कर्म रूपा दुराशया। शुक्ल ध्यानासिना सर्वे, सो हि जानाति तं परं ।। २॥ निर्लेपं निर्मलं वीरं, वर्जितं सकलै मले। लोकनाथ महाशांत, लौल्यता रहितं सदा ॥३॥ लंपटै न क्वचिलभ्यं, लिंग रूपादि वर्जितं । ल: प्रकाशं चिदाकाशं, वंदे देवं सदोदयं ।। ४ ।।
--- उपेंद्र बज्रा छंद - भाष्यो लकारो श्रुति मैं जु इंद्रा, इंद्रा र₹ जु तुझ कौँ मुनिंद्रा । लकार भाषे लवणो हु जोई, तू ही स्वलावण्य मयो जु होई॥ १॥ भाषं लकारो फुनि व्याज को भी, भासै लकारो फुनि दान सौं भी। अव्याज तू ही परपंच न्यारा, दांनी महाभुक्ति विमुक्ति द्वारा ।। २॥ आनंद लक्ष्मी पति लोक नाथा, लक्ष्मी स्वरूपो लक्षमी हि साथा । लक्षो अलक्षो अति लक्षणाढ्यो, लक्ष्मी निवासो अति ही धनाढ्यो ।। ३ ।। .. तत्वानुभूती लक्ष्मी हि सोई, बाह्या विभूती न विभूति कोई। स्बुर्गापवर्गा सव देय तू हि, भक्तान चाहँ जु चहैं प्रभू ही॥४॥
--- मंदाक्रांता छंद - लक्ष्मी नाथो, ललित अति ही, है ललामो त्रिलोकी,
चौरासी जे, लख दुखमई, जोनि से भिन्न लोकी। चौरासीतें, वह हि जु प्रभु, काढई भव्य जीवें,
जाकौं नामा, निज रसमई, साधु लोका जु पीवें ।। ५ ।। लज्या आदी, अति गुन धरै, दास तेरे सुशीला,
तेरे दासा, लसहि जु अती, भक्ति मैं नांहि ढीला ।