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अध्यात्म बारहखड़ी
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गगा दोषा, तजि लव धरै, तोहि सौ कै अनन्या, तोकौं जानें, निज रस छकैं, साधवा ते हि धन्या॥६॥
- दोहा - लगनि त्यागि घरपंच की, लगनि लगावै जेहि । : .. तो सौ ते. निजामा , अन्य भाग. हैं ते हि ।।७।।
लहलहाट अति ज्योति तू, झलझलाट तू देव। लसैं महा दैदीप अति, दै दयाल निज सेव ।।८।। चित्त लगाय मुनी भजें, तू हि लगावै रंग। लटकनि तेरी घां करै, ते हि लहैं तुव संग॥९॥ लट्यो फट्यो इह जीव अति, लुट्यो जु भववन माहि। लूटयो मोह निसाचरें, गुन हरिया सक नाहि ॥१०॥ आयो तेरै द्वार अव, स्वामी करि जु निहाल। गुन अनंत सव द्याय तू, सरनागत प्रतिपाल।।११।। लखै तु हिं सब कौं सदा, विरला तोहि लांत। जे केवल निज ज्ञान मय, तोहि लहैं ते संत ।। १२ ।।
__-- चौपड़ी - लगे रहैं तेरै दरबार, तेई तत्त्व लहैं अविकार। लघु दीरघ को भेद न कोइ, जपै तोहि सो तेरा होइ।।१३।। लरिवो भिरियो जगसौं त्यागि, क्षमा रूप कैसमरस पागि। तेरे होय लहैं निज वस्तु, लब्धि मूल तू रोर विधुस्त ।।१४।। लपिवौ रटिवी तेरौ नाम, केवल लभ्य तु ही अति धाम। लसित महा सोभा को पूंज, दीस तू हि सधन गुन कुंज ॥१५ ।। लता भाव पुष्पनि को तू हि, लहरि विषै की हरड़ समूहि। लहरि स्वभाव तरंग स्वरूप, लहरी तो सम और न भूप ।। १६॥