________________
२४४
अध्यात्म बारहखड़ी
लकरी अंधे कै आधार, भक्ति अधार भविनि के सार। लखै आप सम सकल जु जीव, सोई भक्ति लहै जगपीव ॥१७॥
- सवैया २३ - लाभ अनंत अनंत सुभोग, अनंतपभोग अनंत सुदाना,
वीरज नाथ अनंत धरै तु हि, आनंद रूप अनंत सुज्ञाना। लालच लोभ तजे तुवदास, लहै तुव पास महामतिवाना,
लांगलि आदि भौं सव तोहि, जर्फे जतिराय तु ही भगवाना ॥१८॥ लाधवता न लहैं तुव सेय लहँ अति ही सुगुरुत्व महंता,
तू न लघू न गुरू भगवान, तु ही प्रभु लोक गुरू भगवंत । लाडिल तू हि जु लाल विसाल, सुल्लाज तुझै हमरी गुनवंत,
लाडिलि तेरी हि आनंद इति जु और मलाडिाल हाल महता ।। १९ ।। लापर लोग लहैं नहि तोहि, लहैं सुप्रवानिक वोनि लपंता,
लाधउ तू हि मुनीनि मनोहर, लाय जु लौ तुझ कौं हि जपंता। लागि जु लागि सुइंद्रि सवादनि मूरिख लोग, तुझे न रटता,
लाग लगाव करे जग सौं सठ जीव फिरै जग मांहि नटंता॥ २० ॥ लांक जु ऊपरि बांधि ऊषग्गा, न पाय मग्ग सुवीरफ्नां को,
लात जु खाइय मोहतनी अति, भाव न भायउ धीरपनां को। मोह हि जीति सबै सुइ सूर न और धरै पथ सूर पनां कौं,
लिप्त रहैं तन भावनि मांहि विरद्द धेरै वइ क्रूर पना कौ॥२१॥ लिन्न भये भव भावनि माहि, लिज्यों श्रुति को न लख्यौ जग जीवनि,
लीनउ नाहि स्वभाव चिदातम लीन भये अति माहि अजीवनि। लीक गही नहि नाथ तिहारिहि धारिय लीक जिका भवि जीवनि, राचि अलीकहि लीढ भये परपंचनि मांहि गनी निज जीवनि ॥२२॥
- सोरठा -. लीजे तेरौ नाम, दीजे दान अनेक विधि। जइए तीरथ धाम, गृहवासिनि कौं ए उचित ।। २३ ॥