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________________ अध्यात्म बारहखड़ी २४५ लीन होय तुव माहि, तज नौंमाया जाल सहु । साधुनि कौं निज पाहि, लखनौं तू ही अद्विती।। २४ ।। लीला और न कोई, लीला निज परणति सही। भेदभाव नहि होइ, द्रव्यभाव परणति विष ।। २५ ।। लीला मात्रै तू हि, तारै भवसागर थकी। तो सा सहि प्रभूहि, लीलाधर धरणीधरा ॥ २६ ॥ लीये मुनि निज माहि, दीयो वास जु सासतौ। लुप्त कदाचित नाहि, गुप्त सदा परगट तू ही।।२७।। लुब्ध भाव नहि कोइ, लुब्धक लोहि न पांव ही। लुपै न कबहु सोइ, लिप नहीं करमनि थकी ॥२८॥ - दोहा -- लुकै भाजि भव वन विषै, तुव दासनि पैं मोहि। लरि न सके दासांनि तें, इह पापी अति द्रोहि।।२९।। लुटे न कवह ना लुटैं, लुटि हैं नाहि कदापि। कमनि पैं तुव सेवका, अतिबल तू हि उदापि॥३०॥ लूटि लियौ भव वन विषै, कर्म मिले अति चोर। अव उपगार करौ प्रभू, तुम नरपति अति जोर।।३१॥ लूखो जग सौं होयकार, करि एकाग्न जु चित्त। तोहि भमैं सोई लहै, चेतन रूप सुवित्त ।। ३२॥ लू कहिये ताती पवन, लू सम इह भव वाय। तृ हि हरे झर लायकैं, अमृत रूप सुराय ।। ३३ ।। लूलौ अंध सुकंध चढि, दव निकस जेम। ज्ञान घरनके कंध चढि, भवनिकसै तेम ।। ३४॥ लूला पावें चरन कौं, अंधा आखि लहैं हि। तेरेई परसाद तें, इह गुरु देव कहहि ।। ३५ ।।
SR No.090006
Book TitleAdhyatma Barakhadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal, Gyanchand Biltiwala
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year
Total Pages314
LanguageDhundhaari
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Religion
File Size3 MB
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