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अध्यात्म बारहखड़ी
धूरि समांन जगत की भूति, चिद्रूपा तेरी हि विभूति। धृरि धूसरे मुनिवर धीर, ध्यावें तोहि हरै भव पीर ।। ३३ ।। धूत न पावें भूत जु नाथ, महाभूत ध्यावें गुन साथ। तेरी भक्ति गहै, तजि भर्म, सिर धूर्णं तव सर्व जु कर्म ॥३४॥ धूप न छांह न सीत न थांम, घरखा नहि तेरै पुरि राम। अमृत वरसै मृत्यु जु हरै, तू ही मेघ महा सुख करै॥ ३५ ॥ धूमकेतु सम कर्म प्रजार, धूम न तोमैं तू अतिसार। ध्येय रूप तू धेठि वितीत, धेटि हरै धेठिनि की जीत ॥३६॥ धेनु काम अर कलप जु वृक्ष, चिंतामणि तुव नाम प्रतक्ष। धेनुपुत्र सम मूरिख लोक, तोहि न ध्यावे तू गुन धोक॥३७॥ धैवंतादिक सप्त जु सुरा, तू हि विकासै नायक धुरा। धोटा काहू को तू नहीं, धोक धोक तोकौं प्रभु सही ।। ३८॥ धोरी तू इक और न कोय, धोरी लावै मुनिवर होय। धोवें तुव भजि पाप जु मैल, तेरे दास लगे तुव गैल ॥ ३९ ॥ धोखा नहि यामैं कछु देव, हरै भ्रमण तेरी निज सेव। धोती नेती आदि जु क्रिया, तू अक्रिय तैरै नहि त्रिया ॥४०॥ धौत वस्त्र धोती जे धारि, पूर्जे तोहि ग्रहस्थ अचारि। ते पांवें अनुभव को पंथ, तू अनुभव दायक निरग्रंथ ।। ४१॥ धौ कहिये बंधन को नाम, तेरै बंध न तू गुन धांम। धौत मला मुनि ध्यावे तोहि, करुणा करि तारों प्रभु मोहि।। ४२ ।। धौल लगाय मोह नैं जोर, खोसि लिये गुन इह अति चोर। मेरे गुन द्यावो जगदीस, मोह निवारौ लोक अधीस।। ४३ ।। ध्वांन हरौ अज्ञान जु हरौ, ध्वंस सकल पापनि को करौं। जीव ध्वंसकर पापी जीव, तोहि भ0 नहि दुष्ट अतीव ।। ४४ ॥ धंधा त्यागि भजै मनिराय, धंधा मैं हिंसा अधिकाय। धः कहिये बंधन को नाम, तोमैं बंध नहीं विश्राम ॥४५॥