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भः प्रकाश चिदाकाशं सर्वाधारं सदोदयं । वंदे देवेंद्र वृंदा, योगिनं भोगिनं विभुं ॥ ४ ॥
दोहा
भव्यनि को तारक तु ही भव सागर की पोत । भर्त्ता त्रिभुवन को प्रभू, जाकै गात न भोत ( गोत ) ॥ ५ ॥ भयहारी भगवंत तू, श्री भगवान सुजांन । भद्र भद्रकृत भरित तू, ज्ञान भवन गुनवांन ॥ ६ ॥ तु ही भवांतक भ्रम हरै, करै भलाई नाथ । भली तुही भजन जुं किया, भव तौर वडहा ॥ ॐ
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अध्यात्म बारहखड़ी
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भव तेरौ हू नांम है, होय स्वभाव स्वरूप । तू भदंत गुनवंत है, भगत बछिल शिव रूप ॥ ८ ॥ भगति तिहारी भवि करें, अभवि न पांवें भक्ति । भुक्ति मुक्ति की मात जो, दै निज भक्ति सुव्यक्ति ॥ ९ ॥ भर्म नांव कंचन तनौं, कनक कामिनी त्यागि । भगति करें मुनिवर महा, एक तोहि मैं पागि ॥ १० ॥ भद्रिक परिणामी लहैं, कुटिल लहैं नहि तोहि । गुन भरिता हैं तो भज्यां दै सेवा प्रभु मोहि ॥ ११ ॥
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त्रोटक छंद
भय क भयकारिज ईश तु ही, भगवान विनां दुख कौंन हरे, भकभूर करें अधकर्म तु ही,
भव भंजन तू भवि रंजन है, भरतादिकतार निरंजन है। भणियों न भणायउ पंडित ही ॥ १२ ॥ भगवंत तु ही भव पार करै । ही भरपूर तु पिंड सुख ही ॥ १३ ॥ जु जगभास करो जु महा कवि है। अतिभाव तु ही मनभावन है, वडभाग तु ही अति पावन है ॥ १४ ॥
नहि भानु जु और तु ही रवि है,
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