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अध्यात्म बारहखड़ी
२१३ अति अमृत भाप असाचि तुरी, तर भासमा नाघ अमाध बड़ी: अविभाग अखंडित शुद्ध तु ही, अतिभार धुरंधर आप सही ॥१५॥ गुन भाजन भ्राजिसनू जु तु ही, अतिभास अभास प्रकासक ही। गुन ग्राम सुरासुर नाग नरा, पढ ही जु भये सम भाट धुरा ॥१६॥ जग को प्रभु भाल दयाल तु ही, इह भाहि निवारइ तू हि सही। गुनभाग सुभाग हकार सबै, कहही इक तोहि त ( ) पाप दबै ।। १७॥ सब वृद्धि जु हानि लखै इक तू, अति ही भिषको इक है त्रिक तू। अति रोग हरै अति भिन्न तु ही, अति है जु अभिन्न स्वभाव सही ।। १८ ॥ भिरि है न भिरयो तुक दासन सौं, जडधी जु विमोह अखासन सौं। भिस्लि है न भिलै भिलियो कवहीं, तुव भावनि माहि विभाव नहीं ।। १९॥ नहि भीट सकैं तुझै जन ए, तन है दुरगंध चला मन ए। नहि भीति विभीति सुदासन कौं, अतिभीम तु ही अघ नासन कौं ॥२०॥
___ - दोहा - भी कहिये भय को प्रभू, तू हि अभी भयहार। भीरु नाम कायर तनौं, दास अभीरु अपार ।।२१।। भीनें तोमैं जोगिया, भीतरि बाहिर एक। भीख जु मांगें तोहि , शुद्ध स्वरूप विवेक ।। २२॥ भीर पर नहि दास कौं, तू हि सहाई नाथ। भील हु तो जपि सदगती, पावै तू वड हाथ ।।२३।। भीच्यो मोहि अपार जी, तनु यंत्र ज मैं डारि। मोह महा निरदय मिल्यो, अव भव संकट टारि॥२४॥
- आरल छंद - भुवनेश्वर जगराय छुड़ावै मोहि तू,
है त्रिभुवन को तात रहयो अति सोहि त। भुक्ति मुक्ति दातार, भक्ति दै रावरी,
लगी नादि की देव भ्रांति हरि बावरी ।। २५ ।।