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अध्यात्म बारहखड़ी
भुगतें विनु छुनै न कर्म शुभ अशुभ जो
जग मैं, जीवनि कै जु लगि रहे सुलभ जो। तेरी भक्ति सुवन्हि काठ झ्यौं क्षय कर,
कर्म कलंक सवै 'जु भाक्त ते अति डरै ।। २६ ।। दास जु चाहैं भक्ति भुक्ति तें काम नां,
भुक्ति कहावै इंद्र पदी सुखबासनां। भुक्ति फणिंद पदी हु चक्रि पदई प्रभू,
तेरे दास गिनैं हि निकम्मी सहु विभू।। २७ ।। तु भुवनाधिप नाथ, भुजंगाधिप पती,
अतिगति जीभ बनाय सेस ध्यावै अती। भुवन मांहि तुव कित्ति तु ही है अति गुना, ___ तोहि जमैं बड़भाग मुनीसर तत चुना ॥२८॥
- छंद भुजंगी प्रयात – भुजंगी प्रयातारि छंदा सवै ही, तु ही जो वखानैं सदा दोय नैं ही। तु ही भूत भृद्भूत भावो सुररूपा, तु ही भूति रूपो विभूति सुरूपा॥२९॥ प्रभू तात मातृ अभूतो अभूही, महाभूत भूतेश्वरो है प्रभू ही। सदा भूपती तू हि भूरीश्वरो वा, विभू है सुभूतीश्वरो थीश्वरो वा॥३०॥ तजे भूलि ध्या। मुनीसा, तुझे ही तु ही देव भूतारथो शुद्ध है ही। जिके नास्तिका भूतवादी अयाना, तुझै नांहि गांवै तिके नां सयानां ।। ३१ ।।
- सारठा - तजि बहिरंगा भृति, चिदघन रूपा धरी। नो मां, सुविभूति, भृत्यंतर तू देव है॥३२॥ हर भूख अर प्यास, जग भूषण तू देव है। अति भूषित अति भास, भूरि अनंत सुगुन तुही ।। ३३ ।। भूप न दं? जाहि, चोर न वाकै पैसई। कर आपुनों ताहि, तू हि प्रभू ताकौं न भै।। ३४॥