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अध्यात्म बारहखड़ी
भृ प्रथ्वी कौ नांम, भू कहिये उपजें जिको । प्रथ्वीपति तृ रांम उतपति मरण न रावरै ।। ३५ ।।
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८.
भूत सुमनाभ मंगल तू सद भूत आतमारांम, तृ परमातम
जीवपति ।। ३६ ।।
कहैं सत्य कौं भूत भूतारथ नि करा । तू है सत्य प्रभूत, सत्य तिहारों धर्म है ॥ ३७ ॥
भूत अतीत जु काल, तृ त्रैकाल्य प्रधान है। भूत जु इंद्री लाल इंद्री मन तोहि न गर्दै ॥ ३८ ॥ उपजै जाको नांम, भूत कहें श्रुति धर नरा । तू हि स्वयंभू राम, उपज्यो उपजायो नहीं ॥ ३९ ॥ भूत जु विंतर भेद, भूत जु भार्गे नांम तैं । भेष रहित अतिवेद, भेद अभेद अवेद तू ॥ ४० ॥
भेद जु डेडर नांम, भेक तुल्य मैं मूढ मति । कैसे पांऊं रांम थाह सुगुन सागर तनौं ॥ ४१ ॥
भेट चित्त करि तोहि, ध्यांवैं मुनि ममता हरा । भेद रहे नहि कोहि, तेरै साधुनि सौं प्रभू ॥ ४२ ॥
भेजे तैं हि अनंत, शिवपुर कौं जगनाथजी । भेज चढे भगवंत, तेरे द्वारे जगत की ॥ ४३ ॥ भेरि दमांमां देव तेरें, देवल अति वजैं । सुरनर धारें सेव अति अछेत्र अवनीस तू ॥ ४४ ॥ भैरव भाव न कोय, भैषज भव की तू सही । तु अति भोगी होय, आनंद रस को भोगता ॥ ४५ ॥
भोला लोक अयांन, तोहि त्यागि औरहि भजैं।
गनियें सोइ सयांन, तुव भजि त्यागें जगत कौं ।। ४६ ।।
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