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________________ २१६ भोगी सर्प जु नांम, भोग फणनि कौ नांम है। सर्प हु शुभ गति रांम पांवैं तेरै नाम तैं ॥ ४७ ॥ P भोग जगत के नाथ, झूठे सर्वहि सार नहि । भोग त्यागि तुव साथ, करहि जती अतुलित व्रती ॥ ४८ ॥ इंद्र चा छंद न सुर्ग चाहें न च विभूती, न नाग लोका नहि चक्रिभूती । न ऋद्धि सिद्दी परजोग भूति, न सार्वभौमीभुज की विभूती ॥ ४९ ॥ अध्यात्म बारहखड़ी नही जु इष्टा न अनिष्टा चांहैं, निहकांम भक्ता शिव हू न चांहैं। पगे जु तोमैं प्रभु, हैं अनन्या त्वत्पाद धूली प्रतिपन्न धन्या ॥ ५० ॥ — — सोरठा भौतिक लहें न तोहि, जे आरंभी अति सठा । दें जगदीसुर मोहि, निहकामा भगती महा ॥ ५१ ॥ भौंदू तोहि विसारि, विचरै भवमाया विषै । भंगुर भूति जु डारि तोहि न सेवें जडमती ॥ ५२ ॥ भं नक्षत्र जु नांम, नक्षत्रनि को पति ससी । ध्यावै तोहि सुधाम, सवं नक्षत्र हु तुव भजे ॥ ५३ ॥ भंग न तूहि अभंग, भंग भाव तेरै नहीं । भ्रांति न तू अति रंग, नांहि दुर्भाांति जु तो विषै ॥ ५४ ॥ भव मद भेजें सोय, जो तेरौ सरन जु गहै। भ्रंस न कवहु होय, जो तोकौं तन मन रटै ।। ५५ ।। — — छप्पय भः कहिये श्रुति मांहि, भ्रमर कौ नाम जु होई. भ्रमर रुप मुनिग़य, सम्यकी अति व्रत जोई। चरन कमल प्रभु के हि ध्याय अनुभौ रस पीवैं, करि जु स्यामता दूरि, शुद्ध है तोहि जु छीवैं ॥ ५६ ॥
SR No.090006
Book TitleAdhyatma Barakhadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal, Gyanchand Biltiwala
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year
Total Pages314
LanguageDhundhaari
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Religion
File Size3 MB
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