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अध्यात्म बारहखड़ी
बसंततिलका छंद
गात्रा न कोय निज ज्ञान अनंद गात्रा, पात्रा न कोई गुणपात्र प्रभू सुपात्रा । पांवें न गाध मुनिराय तु ही अगाधा,
गांना न मांन नहि तांन तु ही अवाधा ॥ १२ ॥ गाह्यो न जाय न हि गार स्वरूप तु ही,
नांही जु गारव मदा तुझ मैं कभू ही । ज्ञांनी महा जु सवज्ञायक ज्ञान गया,
जानें न ग्राम्य जन तोहि तु ही अगम्या ॥ १३ ॥
ग्रामा असंखि गुण ग्राम जपैं मुनीसा,
ज्ञान प्रमाण जग भानु तु ही अनीशा । गावै तु ही जु जग अनूप राजा,
राजे प्रभू जु जगदीस असंखि बाजा ॥ १४ ॥ ग्यास हि रुद्र जिनराय तु ही जु ध्यांवें,
होवें जु गाफिल जिके नहि तोहि पावैं । खोलें जु गांठ हिय की प्रभु सम्यकी जे,
राखेँ जु तोहि जिय मैं इक तोहि श्रीजे ॥ १५ ॥ गात्री जु जीव जग के प्रभृ तू अगात्री,
सुर्गापवर्ग सुख सर्व तु ही सुदात्री | गारी ह खांहि जग की नहि दास छांडें, हु
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तोकौँ न ध्याय बहिरातम जन्म भांडें ॥ १६ ॥
• मंदाक्रांता छंद
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गाजा बाजा, करि सुरनरा, तोहि पूजैं प्रभूजी,
तेरे बाजा, अगणित वर्जे, ग्रामणी तू विभूजी । धोक तोक, अगिनति गुना, तू गिरातीत स्वामी,
तेरी भाषी, दिदधरि गिरा, दास होखेँ सुधांमी ॥ १७ ॥
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