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अध्यात्म बारहखड़ी
- श्रीक - गणाधारं गताधारं, गात्रातीतं सुगात्रकं । गेशती च गावाण, सविंत गुणरूपिणं॥१॥ गूढ रूपं जगद्गुहं, ग्रेहातीतं जगत्गुरुं । ग्रैवेयकादिदातारं, ज्ञानमूलं च गोपति ॥२॥ न गौणं सर्वथा मुख्यं, गंधरूपादि वर्जितं । सुगंधं शुद्धरूपं च, गः प्रकाशं नमाम्यहं ॥३॥
– चौपड़ी - गणनायक तू गणपति देव, गणधर आदि करें प्रभु सेव। गति आगत्य रहित निरद्वंद, गतिदायक अतिसुगत अफंद ।।४॥ गमनागमन सुतजि मुनिराय, निश्चल तोहि भनँ ऋषिराय। गद कहियै रोगनि को नाम, रागादिक सम रोग न रांम॥५॥ सर्वरोग हर तेरौं ध्यान, गदातीत तू पूरण ज्ञान। गणना तेरे गुण की नाहि, तू गणेस अतिगण तो माहि॥६॥ तू गरिष्ट अतिसिष्ट प्रसिद्ध, गरिमा सागर अतुलित सिद्ध। गरहारी तू गरल प्रहार, निरविष अमृत रूप अपार ।।७।। गरडध्वज पूजित गणभूप, अतिगलतां न गमक निजरूप। हैं गलतां न मुनी तुहि ध्याय, तू गतमोह विगत अतिन्याय॥ ८॥ गगन रूप तू गगन सुपार, गच्छ वितीत अनिच्छ अपार। गर्भ निवास रहित वरवीर, तू हिरण्यगर्भ जु धरधीर ।। ९ ।। गर्भ तिहारे मैं सव लोक, गजपतिपति को पति गुण थोक। गर्व प्रहारी गर्व वितीत, गणी गणाधिप देव अतीत॥१०॥ गहर गती अगतिनिको तार, तू गणाग्रणी भव दधि पार। गणातीत सवगण करि पूजि, ज्ञानिनि सौं तेरे नहि दूजि ।। ११॥