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अध्यात्म बारहखड़ी
खं सुर लोक तुझै सुरनाथ, से तन मन करि सुर साथ। खं खडग जु ज्ञानातम होइ, मोहादिक नासै अरि सोई।। ४२ ।। खं कहिये फुनि सुन्य जु नाम, रागादिक त शुन्य सुसंम् । खंभ लोक की तू हि जु एक, खंड खंड व्यापी सविवेक।। ४३ ।। आरिज खंड मलेछ जु खंड, तू हि विभासै देव अखंड। खंडित भाव न तेरे कोई, नित्य अखंडित अचलित होइ ।। ४४।।
- सोरठा - खखा पासि दु शुन्य, खः कहिये मात्रांतिकी। तू सव माहि अशुन्य, पुन्य पाप तैं रहित तू ।। ४५ ।।
अथ बारा मात्रा एक कवित्त मैं।
- सवैया ३१ - खल तोहि पावै नांहि ख्यात तेरी लोक माहि,
खिन्न नाहि होत कभी खीण मोह तू जिना। खुक्कहँ जु निश्चय कौं निश्चय स्वरूप आप,
खूट भव्य लोकनि को खेचर तु ही दिना। खेद नांहि भेद नांहि खैरलभ्य ज्ञान गम्य
खोदि नाखे कर्म भर्म नाथ तैं यथा तिनां। खौध नांहि पांवे तोहि खंड खंड नायक तू ___खं समान तेरौ रूप खः प्रकाश तू गिना ।। ४६ ।।
- सोरठा - ख्यात विख्यात जु नाथ, तेरी सत्ता शक्ति जो। संपति सो निज साथ, दौलति नित्य स्व संपदा ।। ४७ ।।
इति खकार संपूर्ण । आगें गकार का व्याख्यान करै है।