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अध्यात्म बारहखड़ी
तेरी तुल्या, गिरपत्ति नही, सो जडो तू सुनानी,
साधू शांता, गिरसिर तपैं, तोहि ध्या सुध्यांनी। काया माया, गिनति न धरै, तोहि सौं लौं लगांवें, तू ही नाथा, गिरपति प्रभु, है गिरानाथ शा।। १८ ॥
- चौपड़ी - गिलै काल जीवनि कौं नित्य, तू जु कालगिल जगत अनित्य। गिरधारी से तुव पाय, तू धरधारी देव अमाय ॥ १९॥ गिलती रहै काल जगदेव, तिनकौं जे तुव धारै सेव। गीर्वाणाधिप तेरे दास, तू गीर्वाण पूजि सुखरास ।।२०।। गीत गांन करि इंद नरिदं, तोहि भजै तू परम मुनिंद। गीधादिक पक्षी बहुजीच, तुव भजि पायो सौख्य अतीव ।। २१ ।। गी कहिये वांनी को नाम, तेरी वांनि सही गुन धाम। देवनि कौं गीर्वाण जु कहैं, सो तू ही मुनि दिन करि गहैं।। २२।। गुणी गुणाकर तू गुण रूप, गुणनिधि गुणअंभोधि निरूप। गुणनायक गुणग्राम अपार, गुण निधान गुणवांन जु सार।। २३ ।। गुपत सुप्रगट महागुणवंत, गुणि गुण रूप गणिक भगवंत। गुह्य गुसांई गुरतर गुरू, गुणाधार निरधार जु थुरू ॥२४॥ गुणछेदी निरगुण है तू हि, रहित विभाव स्वभाव समूहि। निज गुण रूप सुरूप अनूप, मायक गुण तँ रहिता अरूप ॥२५॥ गुण वंधन हूं को गुर कहैं, तू निरबंध गुरू सरदहैं। गुणा शमुद्र तू अगम अपार, मांन गुमान रहित ततसार ॥ २६ ॥ गुफावास करि धरि द्रिढ जोग, जोगी तोहि भ® रसभोग। गुप्त वारता जां. सर्व, तेरे दास अनास अगर्व ।। २७ ।। जीव समास गुनीस जु होय, 'सव को रक्षक तू प्रभू सोय। रतनत्रय भेद जु गुणतीस, तू हि प्रकास विभू जगदीस ।। २८॥