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अध्यात्म बारहखड़ी
गुणतालीस ऊरधा लोक, दास न चाहैं अति सुख थोक। चाहै तेरी भक्ति रसाल, भुक्ति मुक्ति की मात विसाल॥२९॥ नरक पाथड़े हैं गुनचास, सातनि के अति ही दुखत्रास। तेरी भक्ति विनां जिय लहैं, दास न दूरगति कबहू गहैं ।। ३० ।। पदवी थर सठि नर होइ, या कलक् गुनसठि ही सोय। इह हुण्डावसर्पणी काल, कबहुक आवै दोष विशाल ।। ३१ ॥ असे हू जग मैं निजदास, तोहि न भूलहि जगत उदास । गुणहत्तरि ऊपरि सौ नरा, वडे पुरिष अति गुणगण भरा॥३२॥ तूहि प्रकार सर्व प्रकास, गुणियासीह मदन करि त्रास। तूहि अगुरत्नघु अति गुरतरू, अतिशय सागर सुर नर गुरू ।। ३३॥
- अरिल छंद - गृढ स्वभाव अनंत महा तू गूढ है,
महिमा तेरी गूढ अरूढ अमूढ है। तेरी भक्ति न ईश मूढ ए नहि करै,
गूगल नेयर तुच्छ देव पूजत फिरै ।।३४ ।। गूंधे सकल जु अंग तू हि वक्ता महा,
सुनि तेरी धुनि दिव्य दास नैं रस लहा। गेह देह नहि नेह तुही जु विदेह है,
तनैं गेह तुव ध्यायवेहि विधि एह है।। ३५ ।। गेह मांहि धन नेह कुटंब सनेह है,
तो सौं लगै न नेह चित्तप्रति एक है। कैयक दिन जौ दास गेह हू मैं रहैं,
पही पाहुनां तुल्य सोच मैं नहि वहै॥३६॥ ज्ञेय रूप तू ज्ञेयभूप अति रूप है,
ज्ञेयाकार जु ज्ञान अलेप अरूप है। ज्ञाता ज्ञान जु ज्ञेय वायी की एकता,
तो विनु भासें कौनं जु तत्व अनेकता ।। ३७॥