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अध्यात्म बारहखड़ी
यः कहिये यमराडु कौं, तू यमहर भवतार | य: कहिये फुनि खान कौं, ज्ञान यान अविकार ।। ५८ ।।
यान पात्र भव सिंधु की, तू हि उतारै पार य: कहिये फुनि यत्न को तू अयल गुन धार ।। ५९ ।।
य: कहिये फुनि त्याग कौं, तू त्यागी अति देव । अति भागी अधिकार तू, दै दयाल निज सेव ॥ ६० ॥
अथ द्वादश मात्रा एक कवित्त मैं
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सवैया
यतिनि को नायक तू यतन करैया देव,
यान पात्र लोक कौं तु ही हि भवतार हैं । वियासा न तेरे कोऊ, यी प्रकास तू हि होऊ,
युक्ति कौ निवास वृद्ध दायक अपार है । नोति ये अर्जेन तेन पत्र तन्त्र गृह
यैर्न सुन्यौ नाथ जस ते न पांवें पार है। योग कौ प्रकास देव यौगि की जु दिक्षा देय,
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यंत्र मंत्र नांहि कोऊ, य: प्रभास सार है ।। ६९ ।।
कुंडलिया छंद
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या अनुभूती रावरी, हरै यामिनी भ्रांति, सो शुद्धा तुव भानु की, किरण जु परम प्रशांति । किरण ज़ु परम प्रशांति, मोह तिमर जु कौं नासै,
भोग भावना मेटि बोध दिवस जु विभासैं । कर्मासुर क्षयकार योग मूला जु विभूती,
भाषै दौलति ताहि, रावरी या अनुभूती ॥ ६२ ॥ इति यकार संपूर्ण । आगैं रकार का व्याख्यान करें है।
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