SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्यात्य बारहखड़ी तूं शृंगार विवर्जित स्वामी, निज शृंगार मई अभिरामी। सव शृंगार तर्जे जे साधू, तेरे काजि हौंहि आराथू॥४४ ।। शृंखल भव की ते भवि तो, तर पुरि आवे तुव जोरें। तेरै श्रृंखल नाहि प्रभूजी, निरखंधन तू जगत विभूजी ।। ४५ ॥ उतशृंखल तोकौं नहि पावै, ते पां₹ जे भ्रांति नसावें। तेरी शृंखल मांहि सवै ही, तोतें कर्म कलंक दवै ही॥४६ ।। शृंगवेर आदिक बहु कंदा, तजि करि ध्यां पाप निकंदा। सब रस तजि तेरै रस लागैं, तव निश्चल है तोमहि पाग।। ४७॥ खंस नाम विध्वंस न ताकौ, होयै देव नाथ तू जाकौ । श्रः कहिये इह अंतिम मात्रा, तू सब मात्रा मांहि अगात्रा ।। ४८ ।। सुनिकै द्वादस मात्रिका, तजिकैं द्विदश अवत्त । तपिक द्वादश तप विधी, धरिक द्वादस व्रत ॥ ४९ ।। तोहि जमैं जग नाथ जी, ते उतरे भवपार। भुक्ति मुक्ति दाता तु ही, अविनासी अविकार ॥५०॥ अथ द्वादस मात्रा एक कवित्त मैं - प्रणव स्वरूप तू ही श्रमण उधारक है, श्राद्ध होहि तोहि भ6 वंस के उजागरा। तू तो श्रितवत्सल जू श्री निवास लायक है, श्रुणु एक बीनती सुतारि भवसागरा। श्रूयमाण तेरे जस श्रेय के समूह करें, श्रमत जो आगम है ऋद्धि सिद्धि आगरा। श्रोतांनि को तारक तू औतपंथ भासक है, लोक श्रृंग श्रः प्रकास नवल सुनागरा ॥५१॥
SR No.090006
Book TitleAdhyatma Barakhadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal, Gyanchand Biltiwala
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year
Total Pages314
LanguageDhundhaari
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Religion
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy