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________________ अध्यात्म बारहखड़ी श्रुति सुनि जिन तू ध्यायो नाही, ते श्रुत वर्जित वधिर कहांहीं। श्रुति संमृति अर सकरन पुरांनां, प्रगट किये तू पुरुष पुरांनां ॥३१।। तेरौं श्रुत अमृत जगराया, पीढं ते हैं अमरन काया। अपनाग जस से स्वांभो, भय जल पार कर शिवधांमी ॥३२ ।। श्रूय जु माणा तुव जस जीवा, शुद्ध स्वरूप हौँहि जगदीवा। श्रेय नाम तेरौ ही एका, श्रेय करै दुख हरै अनेका॥ ३३ ।। तू श्रेयांसनाथ अति श्रेयो, श्रेष्ट सकल मैं सवौं प्रेयो। श्रेयकरण अघहरण जु तू ही, सरण गहँ मुनि गुन जु समूही॥ ३४॥ श्रेणि जु कहिये पंकति नामा, गुण पंकति तोमैं अभिरांमा। उपशम श्रेणी क्षपक जु श्रेणी, तू हि प्रकासे मुक्ति निसेणी॥३५॥ श्रेणिकनाथ श्रेणि सेयो तू, श्रेणि उलंघक मुनि ध्येयो तू। श्रेष्टी वहुत उधारे तैं ही, तोकौं अतिगति विरद फर्फे ही ॥३६ ।। श्रमत आगम तुम्हरौं स्वामी, तुम श्रीमत श्रीपत्ति गुण धामी। श्रमत अध्यात्म जे भांव, ते निज आतम राम हि पावै ।। ३७ ।। श्रोता तेरे तिरे अपारा, तू वक्ता तारै संसारा। श्रोत्रिय विप्र गणा वहु तारे, क्षत्रि गणा वहु सँहि उधारे।। ३८॥ श्रोणित आमिष अस्थि अलीना, इन हि भरवै ते होहि मलीना। श्रोणित रुधिर तनौं है नामा, तेरै रुधिर न अस्थि न चामा।। ३९॥ तू अप्राकृत आनंद रूपा, अंबर रहित दिगंबर भूपा। श्रीत समार्त्तक धर्म प्रकासा, तू पौराणिक सकल विकासा ॥४०॥ श्रौत धर्म से विमुख विमूढ़ा, श्रीताभास धरै मत रूढ़ा। तेरी भक्ति न उर मैं आंनँ, करुणा रहित कर्म वहु ठानें ।। ४१ ।। ते वू. भव सागर माहीं, तो बिनु धर्मरीति कहुँ नाहि । श्यक देव तु ही श्री अंका, तो विनु और सवै जग रंका ।। ४२ ।। शृंग जू गिर के चढि मुनि ध्यांनी, धेरै जे तेरौ ध्यान अमानी। ते जगभंग तत्त्व तुव पावै, लोक श्रृंग घढि तुव पुरि आवै॥४३॥
SR No.090006
Book TitleAdhyatma Barakhadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal, Gyanchand Biltiwala
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year
Total Pages314
LanguageDhundhaari
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Religion
File Size3 MB
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