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अध्यात्म बारहखड़ी श्रीधर श्रीवर देव तू, श्रीनिवास श्रीपात । श्रीविलास श्रीराम तुं, श्री जिन श्रीपति ख्यात॥१९॥ श्रीश्रित पादांबुज प्रभू, श्रीप्रधान श्रीमान । श्री तेरी अनुभूति है, निजविभूति भगवान।।२०।। श्री नहि तोते भिन्न है, तू नहि श्री से भिन्न । श्री स्वभाव पर्याय है, तू है द्रव्य अभिन्न ।। २१॥ श्री अंतर भरपूर तू, बहिरंगा ते दूर। बहिरंगा है नश्वरी, जगमायाभकभूर ।। २२ ।। श्री तेरी अविनश्वरी, श्री नहि त्रिय की जात। तू पुरुषोत्तम पुरुष नहि, पूरण परम उदात्त ।। २३ ।।
- छंद वेसरो - तू श्री पालक जगत प्रपाला, श्री विश्राम सकल भ्रमटाला। ते श्रीपाल उथारे केई, ते उधरै जे तोकौं लेई ।। २४ ।। श्री ही धृति कीरति बुधिराया, कमलादिक से तुव पाया। तू श्री वीजभूत भगवांना, भक्त उधारक भूप अमांनां ॥ २५ ॥ श्री गुरु कृपा होइ जब देवा, तब पावै जन तुम्हरी सेवा। श्रुणु देवाधिदेव भगवंता, तेरे गुन कौं नांहि जु अंता॥२६॥ तेरे श्रुत करि अगनित सीझे, भवभ्रम छांडि सु तोसौं रीझे। जब लग जन तोकौं नहि पांर्वे, तब लग आसादास कहावैं।। २७॥ तेरौ रहसि लहैं जब देवा, गहैं आपुनों रूप अभेवा । श्रुत परसाद सु केवल लैक, आवे तुव पुरि जग जल दैक ।। २८॥ श्रुतिधारक श्रुतिकारक देवा, श्रुतिपारग श्रुतिमारग सेवा। श्रुतिसागर श्रुतिआगर नांमी, श्रुतिनायक श्रुतिदायक स्वामी ॥२९॥ श्रुति उल्लंघक केवलरूपा, श्रुतिकेवलि गावँ जस भूपा। तू भावश्रुति द्रव्यश्रुती ना, ते द्रव्यश्रुति प्रगट जु कीनां ।। ३० ।।