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अध्यात्म बारहखड़ी
- श्रगधरा छंद - श्रद्धादै श्राद्ध देवाश्रित जु करि प्रभू श्रीपती तू श्रुतीशा। श्रुयंते नाथ तेरे अगणित सुगुणा श्रेयरूपामतीशा ।। त्रैमसिद्धांत भासै सकल रस तु ही शुद्ध श्रोता मुनीशा । स्वामी तू श्रौत श्रृंगा श्रुति स्मृतिकरा ,यंक अंस्कार ईशा ।।८।। श्रयकै जिनकी भक्ति तू, श्रष्टा को धरि ध्यान । स्त्रज वनिता सव त्यागि कैं, करि विनती सज्ञान ॥९॥ श्रद्धा तेरी मोहि भक्त अनेकनि कौं दई। तैसी दै जगमौर दै, श्रद्धा सम नहि और॥१०॥ .. ..... . परः, हे * श्राद्ध महत। आराधैं तन मन करी, ते तौकौं हि लहंत॥११ ।। श्राद्ध होय तुव गुन ग्टैं, देहि न काहू श्राप। उणमणि मुद्रा जे गहैं, लहैं न ते त्रय ताप॥१२॥ श्राप दिय करुणा नसे, करुणा विनु नहि भक्ति। श्राप न तातें भक्त दे, हैं जिनमैं अति शक्ति ॥१३॥ श्रावक धर्म प्रकाश तू, मुनिमत धारक देव। जीव दया प्रतिपाल तू, करूणा सिंधु अछेव ।। १४॥ श्रांत भयो भव वन विषै, नहि पाई विश्रांति । = विश्राम दयाल तूं, शांतरूप अतिक्रांति ॥१५॥ श्रावण भाद्रपदादि मैं, चातुर्मासिक ब्रत्त। धारैं तेरे दास प्रभु, तो करि ब्रत्त-प्रवत्त ॥ १६ ॥ श्रियोपेत स्वामी परम, तूं हि श्रियंकर नाथ । स्त्रिष्टि तजै स्वष्टा भC, तब पां3 मुनि साथ ।। १७॥ श्रित जु अनेक उधारिया, श्रितवत्सल तृ देव। मोहू करि श्रित आपुनौं, देह निरंतर सेव ।। १८ ।।