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अध्यात्म बारहखड़ी
आगम सरवस ॐ कारा, ॐ कार करण भवपारा । ॐ अमृत और न कोई, इह जु सुधातर अदभुत होई।। २५ ।। महाभाग इह अमृत चाखे, महाभाग इह निधि दिढ राखे।
ॐ कार सकल ऋषि साखै, ॐ नमि आनंदज भारवै॥२६॥ इति प्रणव स्तुति। आगे श्र अक्षर श्रीकार है ताकी द्वादस मात्रा कहै है।
- थोक - श्रमणं श्राद्ध निस्तारं, श्रियोपेतं च श्रीधरं। श्रुतीशं श्रूयमाणं च, श्रेयं पुंजे यशस्करं ॥१॥ त्रैमतागम पारीणं, श्रोत्रीन्पारकर विभुं। श्रौत धर्म प्रणेतारं, श्यंकं श्रस्कारकं भजे ॥२॥
- दोहा - श्रमणाधिकतर श्रमणगुर, श्रमणधुरंधर देव । श्रमण कहैं मुनिराय कौं, श्रमण करें प्रभु सेव।।१।। श्रमहर भ्रमहर भ्रांतिहर, प्रभु श्रयणीय विशेस। जाकौं श्रम उप® नहीं, तारै भक्त असेश ॥२॥ श्रवण सु जाके गुननि कौ, कर भवोदधि पार। श्रवण रहित ते वधिर हैं, सुनें न प्रभु गुन सार ॥ ३ ॥ श्रद्धा द्रिढ धरि धीर धी, सेर्नै प्रभु कौं जेहि । श्रम विनु उधरै जगत तैं, पांव निजपुर तेहि ।।४।। श्रद्धा करि सेवै श्रमण, स्वगवनितादिक त्यागि। श्रद्धा करि पूर्जे हरी, गांवें गुन अनुरागि॥५॥ श्रय रे जन जगदीस कौं, श्रय श्रय वारंवार । अवरसकल भ्रमजार तजि, धरि भगवंत अधार ॥ ६ ॥ श्रगधरादि छंदनिकरी, थुतिकरि हरि की धीर। जिन करि तेरौ भ्रम मिटे, छुटै वंद्यतै वीर॥७॥