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अध्यात्म बारहखड़ी धिर थान थिर धाम, थिर ज्योति थिर नाम,
तू ही थिर राम अभिराम एक है वही। थिर थिरता को मूल, धिरता अपार देय,
चिरीभूत भाव एक तू ही जो धेरै सही। थिति सब कर्मनि की तैं ही जो प्रकासी देव, सवै थिति हरी, तैं ही भव थिति से दही ॥२१॥
___..- सोरता .. थीजै छीजै नाहि, पधेरै त न कदापि ही। अति गुन तेरै मांहि, थुति जु करै सुरनर मुनी ।। २२ ।। अधिः करिव का काहि दानित : माईनक हु। वुद्धि न मेरे पाहि, कैसे मो से श्रुति करें ॥२३॥ तोकौं नाथ विसारि, पर धन पर दारा गहैं। ते इह जनम पझारि, थुक थुक है नरकां परै ।। २४ ॥ थून महा तु देव, धूणी लोकालोक की। करहि महा मुनि सेव, तू अछेव अतिभेव है॥ २५ ॥ असौ थूल जु तृहि, जाम सर्व समांबहीं। गुनी गुनाट्य समूहि, दूहि न तेरै कोइ सौं ॥२६॥ सूक्षम असौ नाथ, अणु देखें तेहु न लखें। मुनि जन हूं के हाथ, नहिं आवै सो है तु, ही॥२७ ।। जीवनि के जु असंखि, जनम लखें मन की लखें। ध्यांनी मुनि निहकंखि, जैसे हू तोहि न लखें ।। २८ ।। थूणी .पर की नाहि, दावें जो तुव सूत्र सुनि। ते दासनि कै मांहि. आय महाभव जल तिरै ।। २९ ।। थूणी पर की जेहि, दाबैं पापी दुष्ट धी। जांवें नरकि जु तेहि, भगति लहैं नहि रावरी ॥३० ।।