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थाह न तेरी पांवई, सुर नर खेचर नाम ।
मुनि गणधर हू नां लहैं, जे अनंत
थाह न केवल विनु कहूँ, दै केवल निजभाव प्रभु,
अध्यात्म बारहखड़ी
वडभाग ॥ १३ ॥
तू केवस्थ
शुद्ध बुद्ध
—
तेरे एक
न
थांन ।
निश्चल श्री भगवांन ॥। १६ ।।
थांन मांन धन धान प्रभु सत्र दाता सव रूप तू, निज स्वरूप निज सब धांननि मैं तू सही, रहे जु एकै सर्वग व्यापक स्वस्थ तू, थाती तेरे पास है, और दरिद्री तू ही रमापति जगपती, हरै जगत को थार कटोग त्यागि सहु, लें करपात्र ते मुनि तेरौ ध्यान करि, पांवै भवजल धांध तिहारी विनु प्रभु, थाघ जगत कौं नांहि । दास करौ जगदीस जी, राखऊ अपुनें पांहि ॥ १९ ॥
पार ॥ १८ ॥
स्वरूपे । "
चिद्रूप ॥ १४ ॥
धांणे मोह कर्म के उठावै तूहि और कौंन,
होय ।
सोय ॥ १५ ॥
सर्व ।
गर्व ॥ १७ ॥
सवैया - ३१ थाप औ स्थाप एक तेरी ही जु लोक मांहि,
तेरी धापी रीति कौ, उथापक न कोई हैं। धाट को धणी जु नाथ पाट धार है अनाथ,
थाह न लहत कोऊ तू जु एक दोय है । थाक्यो अति हों जु देव, थाक टारि दें स्व सेव, थालि घालि दे थांन तो विनां न होय है।
अहार ।
ध्यांवें मुनि धारि मौन तारक तू सोई है ॥ २० ॥
थिर रूप थिर देव, थिरचर नायक तू. थिरचर जीवनि कौ पालक गुरू तु ही ।