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अध्यात्म बारहखड़ी
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- शोक - थकाराक्षर धातारं, सर्व मात्रा मयं विभुं। वंदे देवेंद्र वृंदावँ, लोकालोक प्रकासकं ।।१।।
- दोहा - थ कहिये सिद्धांत मैं, भय रक्षण को नाम। तू रक्षक है भय थकी, निरभै आतमरांम ॥२॥ थकारांक आगम बिषै, उच्चसिलोचन नाम । सिद्ध सिला सम और नहि, अदभुत अतिगति धाम ।। ३ ।। थकित है हैं सुरपती, थल तेरौ अवलोकि। थल दै जलनैं कादि कैं, राख्यो कर्मनि रोकि॥४॥ धके कर्म तो भि प्रभू, लुक जु भव वन माहि। थलचर जलचर नभचरा, तू पालै सक नांहि ॥५॥ थक्यो बहुत हूं नाथजी, भटकि भटकि भव मांहि। थकै चिन्न तो मैं प्रभू, सो करि लै निज पांहि ।।६।। थरकि रहैं मुनि तो विषै, थल रूपी तू देव। थल वांधै प्रभु धर्म को, थलदायक तुव सेव ।। ७ ।। धल मैं जल मैं नभ महैं, तु ही सहाय न और। ऋद्धि करन संकट हरन, तू त्रिभुवन को मोर ।। ८॥ थट्ट तिहारै पासि है, गुन अनंत परजाय। सदा अकेले तुम प्रभू, एक रूप समुदाय ।।९।। चित्त वृत्ति अति थरहरी, जीव घात नैं नाथ । जिनकी तेई पावही, देव तिहारौ साथ ।। १० ।। थण वहुती मातांनि के, चूंषे बहुती वार। अव भव सागर तारि तू, तरण जु तारण हार ॥ ११॥ थाघ न आवे भव तनी, पारावार अपार । थाह लहैं तेईन प्रभु, दास हाँहि अविकार ॥१२ ।।