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अध्यात्म बारहखड़ी
गलै तौख राल्यौ महामोह नैं जी, जु मिथ्यात रूपो सदष्टि हनैं जी। तुही जो छुडावै महा वंदि सेती, कही जाय नांही लही व्याधि जेती ।। ८०॥ सुतंत्रो तुही तंत्र कृत्तंत्र धारी, जु तंत्राधिपो तू हि तंत्री अपारी। सुतुंगा उतंगा तु ही है असंगा, नही तंत्र मंत्रा नहीं कोइ रंगा ।। ८१ ।। करें तांडवा वासवा धारि सेवा, तुही देवदेवा प्रभू है अछवा। तु ही है स्वतः सिद्ध स्वामी सवौं का, सुरों का नरों का सही है मुन्यौं का।। ८२ ।।
- दोहा - तः प्रकास अतिभास त, सब मात्रा मैं नाथ। सर्वाक्षरमय धीर तु, गुण अनंत तुब साथ ॥८३ ॥
अथ द्वादश मात्रा एक कवित्त मैं । तप को प्रकासक तू, तम को हरनहार,
ताप सहु मेटै तात, त्रिना को न नाम है। तीर भव सागर की, वैठो अति उज्जल तू,
तुष को न लेस तर, काम को न काम है। तूर वाजें जू अनंत, तेज को निवास कंत,
तैजस औं कारमाण नाहि तैरै धाम है। तो सौ तू न दूसरौं जू, तौर तेरौ तोहि माहि.
तंत मंत आप ही स्वत:प्रकास राम है।।८४ ।। तेरी नाथ जु अस्थिता, तत्व तरंग स्वरूप। सो गौरी धन संपती, दौलति ऋद्धि निरूप॥८५ ॥
इति तकार संपूर्ण । आगैं थकार का व्याख्यान करै है।