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अध्यात्म बारहखड़ी
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तेरौ सौ नहि तेज, सूर चंद हुतभुग धरें। तो दिगि सुर सग रेज, रतन रतन धर तेज विन ।। ६८ ॥ तेड्यो आवै नाहि, रहै सदा सव पास ही। जामैं सर्व समाहि, तेगादिक जाकै नही॥६९ ।। तेजरदि सव रोग, नाम लिये दरिहि नसैं। तें त्यागे जग भोग, जोग रूप जोगी तु ही॥७०॥ जैसैं तिल मैं तेल, तैसे घट मैं जीव इह। पर परणति को मेल, याकै तो विनु नां मिटै॥७१॥ नेह रहयो नहि नाथ, मो मैं कछु बाकी नहीं। देहु आपनौँ साथ, जाकरि है अति पुष्टता ।। ७२ ॥ तेरै राग न रोष मोहादिक तेरै नहीं। तेरे बंध न मोख, शुद्ध बुद्ध चैतन्य तू॥७३॥ तैलादिक सघ लेप, त्यागै अबधूता मुनी। तृ है देव अलेप, तोहि भ® मुनिवर महा।।७४ ।।
छंद भुजंगी प्रयात तु त्रैकालि दर्सी सु त्रैलोकि ईशा, तु वैगुण्य रूपा अनूपा मुनीसा । तु त्रैलोकि लोकी विलोकै, सव ही समसार तु ही सवै तो फवै ही ।। ७५ ॥ तु त्रैलोकिनाथा चिदानंद तू ही, महादेव देवा गुरू है प्रभु ही। नहीं तैजसा कारमाणा न तेरे, तु उपाधी न व्याधी न आधी न नैर।।७६ ॥ नहीं तोल जाका नहीं मोल जाका, भजै नोहि जोई नहीं नास ताका। नहीं तोष रोषा तु ही वीतरागा, सुसंतोष रूपा मुनि पाय लागा ।। ७७३। नहीं तोड़ जोड़ा नहीं कोई तोरा, नहीं तो पर एक तू ही सजोरा। तु तोटा हरै देव दे भूति मोटी, सुमोटौं तु ही रीति नाहि जु छोटी।।७८ ।। नही तौर तेरा लहैं कोई दूजा, त्रिकातीर्य होवे कर देव पूजा । सुगीतं सुनृत्यं सुवादिन वाजा, जु तौर्य त्रिका ए कहावै सुसाजा ॥७९ ।।