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अध्यात्म बारहखड़ी तुज कहिये प्रभु सुत को नामा, पुत्र कला संग धन धामा । इनमैं राचे भौंदू भाई, तेरी भक्ति न उर मैं लाई ।। ५७ ।। तुरत उधारै तू भव सिंधू, हुमहि उधारि जगत के बंध । तुस सम देह जु कण सम जीवा, तू हि वतावै त्रिभुवन पीवा ।।५८ ॥ तुल सम तुनका सम जगवासी, उड़े फिर अति ही दुखरासी । भ्रांति वायु मैं परे विमूढा, ऊंच नीच धारी गति रूढ़ा॥५९ ।।
- छंद मोती दाम -- तुषार समान जु है जड भाव, जु भांन समांन तु ही जग राव। तुचा करि वेढि उहै इह देह, जु अस्थिनि को प्रभु पंजर एह ।।६०॥ परयौ तन मांहि इहै सठ जीव, तु ही जगतारइ तू जगपीव । तुणतुण तार व* जगराज, महा जु विराग बड़े महराज ।। ६१ ।। तुही जु तुही जु तुही जु तुही जु, वही जु वही जु वही जु वही जु। कही जु कही गुर नैं हि सही जु, सुदासनि. उर मांहि गही जु । ६२ ।। व® अति तूर सु तू अतिपूर, सु, हौं लघु तूल समान जु कूर। उड्यो जु फिरौं भ्रम वाय मझार, तु ही थिर दे पद तारन हार ।। ६३ ।। भनें प्रभु तोहि सु तूटहि फंद, न तूठइ रूठइ तू सिवकंद। कहै प्रभु तू हि समूह जु नाम, सवै जु समूह धेरै तु हि राम ।। ६४॥
- सोरठा -- तूडा सम जगभूति, कण रहिता पसु ही चहैं। भक्ति समान विभृति, भई न है हैहैं कवै ।। ६५ ।। तूश्री मौन जु नाम, मौन धारि मुनिवर भ®। तेरी पंथ जु, राम, पावें तेई ज्ञानमय॥६६॥ तेरे मत विनु लाल, वारावाट जु जग भयो । तेजोरासि विसाल, तेजपुंज गुनकुंज तू।। ६७।