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________________ १५७ अध्यात्म बारहखड़ी - - छंद बेसरों - त्रिदसाधिपपति, तू त्रिपुरारी, त्रिज्ञ त्रिज्ञान त्रिनेत्र विहारी। तिग्मकरो जु कहावै भांना, तेरौ भजन कर भगवांना ।। ४५ ।। त्रिविध हरै त्रिविधातम तू ही, तू त्रिकाल दरसी जु प्रभू ही। त्रिपथ बिहारी सर्व विहारी, त्रिधा वुद्ध सनमारग धारी ॥ ४६ ।। त्रिगुण रूप त्रिभुवन को स्वामी, दरसन ज्ञान चरन अभिरामी। त्रिभुवन वल्लभ त्रिजग गुरू तू, त्रिदसाधिक्ष दुपक्ष धुरू तू।।४७ ।। त्र्यक्ष त्रिलोक सिखामणि देवा, त्रिप्त त्रिदोष रहित विनु छेवा। नाथ त्रिभंगी भासक तू ही, नाम त्रिभंगी लाल प्रभू ही।। ४८ ।। त्रिश्नाहरण त्रिसल्य वितीता, त्रियारहित जगजीत अतीता। त्रिण तुल्या भवभोग विभावा, दास न चाह कण मन लावा ।। ४९ ।। कण रूपा तुत्र भक्ति गुसांई, तू त्रितापहारी है सांई। तिप्टें तू हि सदा सव पासा, विरला जांनहि तत्व विलासा ॥५०॥ मो हति मंगल भव जल पाही, तो विनु पार होहि जन नाही। तीरथ तृहि जु भव जल तीग, तीरथकर जगदीसुर धीरा ॥५१॥ तीन लोक को नायक तू ही, तीरथ तेरी वांनि समूही। दासा तीरथ जगत उधारै, भगति भाव हिरदा मैं धारै॥५२॥ तीर ज्ञानमय तीखा लागैं, मोहादिक सव कर्म जु भागें। तुच्छ बुद्धि जीवनि की स्वामी, पर मोह के वसि अविरामी ।। ५३ ।। तुग्रा पधरी वागा पटका, पटकि मुनी प्रभु तोमैं अटका। तुमको सेय हेय सह त्यागा, तुम्हरी भक्ति मांहि भवि लागा ॥५४॥ तुरहि आदि असंखि जु बाजा, तेरै वाजै त जगराजा। तुच्छ मती मैं तू नहि सेया, तुच्छ गती धारी वहुभेया॥५५ ।। तुलना तेरी और न कोई, तू अतुल्य अविनासी सोई। जान तुला मैं सर्व जु नाले, तो विनु जन भव भव मैं डोल।।५६ ।।
SR No.090006
Book TitleAdhyatma Barakhadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal, Gyanchand Biltiwala
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year
Total Pages314
LanguageDhundhaari
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Religion
File Size3 MB
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