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अध्यात्म बारहखड़ी
एक एक कालाणु वा, सकल असंखि जु होय । मिलै न कोई काहु सों, अमिल शक्ति है सोय ॥ ९ ॥
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एक जाति बहु भांति के पुदगल अमित अनंत है,
जीव अनंत अनेक ।
तू भासै
सर्वं जु
एक मूरति पुदगलो, और जड स्वरूप पांचौं कहे, जीव रासि
सुविबेक ॥ १० ॥
एक रासि संसार की, एक रासि हैं देह धरे जग जीव हैं, सिद्ध विदेह
अरूप |
चिद्रूप ॥ ११ ॥
—
सिद्ध ।
प्रसिद्ध ।। १२ ।।
ए संसारी सिद्ध ह्रौं, जे सुभव्य तुव रु अभवि संसार मैं, कभी न होवें ए तन सिद्धनि कै नही, तातैं भ्रमण न तन तैं ए संसारि के, भ्रमण करें दुख ए जु पदारथ सकल ही, नांहि विगारे मेरी कछु इह रिपु लग्यो, पुदगल मेरे ए जड़ इनके रूप मैं, मेरौ एक न दै स्वभाव निजभाव तू शुद्ध बुद्ध अविभाव ॥ १६ ॥
भाव ।
भक्त ।
मुक्त ॥ १३ ॥
होय ।
सोय ॥ १४ ॥
नाथ ।
साथ ॥ १५ ॥
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छंद वेसरी
ए जड़ है सब शुन्य स्वरूपा, अंक समान कह्यौ चिनूपा । तू है एक शुद्ध चिद्रूपा दै प्रबोध स्वांमी सद्रूपा ॥ १७ ॥ एक राय तू और न राया, एक स्वभाव अनंत अकाया । एक उपादेयो सब हेया, सकल सेय तू मैं नहि सेया ॥ १८ ॥ एकी भाव न ता पायो, दुविधा धरि निजरूप न भायो । एक महा अविवेकी मैं ही, जीव होय हारयौ जड पैं ही ॥ १९ ॥ एन कहावै पाप जु कर्मा, पाप पुन्य लागे द्वय भर्मा । पाप महापापी जग मांही, भक्ति ज्ञांन कौ रिपु सक नांही ॥ २० ॥