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अध्यात्म बारहखड़ी
हु ।
हु ॥ १३ ॥
खांनि एक जाच प्रभू, गुन रतननि की जो तेरी भक्ति महाप्रभू, देहू क्रिया करि सो नाग नांम मणिधर पुरुष, तू मणि धारी चिंतामणि चिद्रूपमणि, धारै तू जु
सुलच्छि ।
तेरी शक्ति सुमणि सही, अतुल विभूति सो श्री संपत्ति धन रमा, दौलति है पतच्छि ॥ १५ ॥
इति लृ वर्णनं । आरौं एकार का व्याख्यान करै है ।
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श्लोक
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देव ।
अछेव ॥ १४ ॥
एकं
विशुद्धमत्यक्षं परमानंद
परं परात्परं देवं वंदे स्वात्म
,
कारणं । विभूतिदं ॥ १ ॥
दोहा
कौन ।
मौंन ॥ ३ ॥
ए कहिये सिद्धांत मैं, नांम महेश्वर ए कहिये फुनि विश्रु कौ, तुम ही देव ईश्वर समरथ नांम है, तोसौँ समरथ तातैं तू हि महेस है, भजैं मुनी गहिं एक एव जगदेव तू, व्यापक लोकालोक 1 तातें विश्रु अत्रिश्व तू, जिनवर नित्य असोक ॥ ४ ॥ एक महाज्ञानी तु ही, एक एक मुक्ति मारग तु ही, परमेश्वर एकीभाव अनेक तू एक तत्त्व सकल तत्व भासक तु ही, अति अविचल एकनाथ द्वै भेद तू, त्रिक भेदो चड पंच भेद धारक तू ही, परम स्वरूप
देव ।
अछेव ॥ २ ॥
सुकेवल ज्ञान । भगवान ॥ ५ ॥
परधांन ।
सरधांन ॥ ६ ॥
रूप ।
अनूप ॥ ७ ॥
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एक धरम आकास इक एक अधर्म निरूप | एक अणूं मिलि वहुत अणु, खंद होय जड रूप ॥ ८ ॥