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________________ यह ग्रन्थ अनेकान्तमय शब्द प्रयोग का अच्छा उदाहरण है (१:२) । जो पद एक अर्थ में परमात्मा के नास्ति पक्ष को प्रकट करता है, दूसरे अर्थ में अस्ति रूप में स्वीकार हो जाता है, यथा – आत्मा असम-महासम, अवरण-वरण वाला, रूपी-अरूपी, संन्यासी-गृहस्थ (निज घर में रहने से), प्रेमी-प्रेम वितीत, अभू ग्रन्थ में जिनेन्द्र भक्ति के अतिरिक्त जिनवाणी प्रणीत आचार्यों आदि के गुण, श्रावकों की क्रियायें, अकृत्रिम चैत्यालयों की संख्या, कर्म प्रकृति की व्युच्छित्ति आदि अनेक ही पक्षों का उल्लेख किया गया है, जिन्हें विस्तार से समझने हेतु पाठक को अन्य ग्रन्थों का ज्ञान आवश्यक है। कवि जिनवाणी को भवकूप से निकालने वाली नेज (रस्सी) कहते हैं (२४६/३८)। ग्रन्थ की भाषा २५० वर्ष पूर्व को ढूँढारी भाषा है। कितने ही कठिन शब्दों का अर्थ तो कवि ने स्वयं ने ही दे दिया है । कतिपय शब्दों का अर्थ परिशिष्ट में हमने संग्रहीत किया है। समस्त ही कठिन शब्दों का अर्थ देना शक्य नहीं है । अत: सामान्य पाठकगण विद्वज्जनों का समझने में सहयोग लेंगे तो ग्रन्थ के हार्द को भली भाँति ग्रहण कर पायेंगे। ग्रन्थ में कवि के काव्य- कौशल का हमें अच्छा परिचय मिलता है। अध्यात्मपरक इस ग्रन्थ में शान्त, वैराग्य, भक्तिरस के अतिरिक्त श्रृंगार (१६१.१७, १५८४६१, ६३), वीर (१५९/६८, २००१८), वीभत्स (१४७/९) आदि सभी रसों को यथा अवसर स्थान प्राप्त हुआ है । अरिल, त्रिभंगी, इन्द्रवज्रा, मोतीदाम, भुजंगी प्रयात,दोहा, चौपई, छप्पय, सवैया, सोरठा आदि विविध छन्दों का कुशल प्रयोग कवि ने किया है। इस ग्रन्थ रचना में कवि की अध्यात्म सैली का उपकार है । अध्यात्म सैलियों के सम्बन्ध में कवि लिखते हैं यह भव वन में सेरी (सीढ़ी) है और इस सैली को प्राप्त करने पर बुद्धि मैली नहीं रहती, शैथिल्यभाव छोड़कर दृढ़ चित्त वीर मानव स्वरस को प्राप्त कर लेता है (२८१-८२:१८, २०) । उस काल में जयपुर में, एवं अन्यत्र भी, मन्दिर-मन्दिर में शास्त्र सभायें चलती थीं, शास्त्र पठन, अध्यात्म चर्चा होती थी और उसके परिणामस्वरूप जहाँ पं. टोडरमलजी,
SR No.090006
Book TitleAdhyatma Barakhadi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Kasliwal, Gyanchand Biltiwala
PublisherJain Vidyasansthan Rajasthan
Publication Year
Total Pages314
LanguageDhundhaari
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Religion
File Size3 MB
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