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. अध्यात्म बारहखड़ी.
- छप्पय - ऋद्धि प्रचंडी नाथ, तु जु है मनसुत खंडी,
मनखंडी जु अखंड, तोहि ध्यांवें वनखंडी। ऋद्धि निरंतर पास, पूजि तू ऋद्धि परंपर,
सकल ऋद्धि परकास, ऋद्धि कैवल्य धुरंधर । ऋद्धि सिद्धि संमृद्धि भरीया, अतुल वृद्धि परिवृद्ध तु,
हांनि वृद्धि से रहित देवा, योगीश्वर परसिद्ध तु॥२१॥ ऋतु षट पूरण धोर, बीर तू रतिपति चूरण,
ऋद्धि अवास विभास, शुद्ध गुणशक्ति प्रपूरण । ऋते ज्ञान नहिं मोक्ष, ज्ञान तो विनु नहि स्वामी,
भुक्ति चहैं न विमुक्ति निष्पहा भक्त सुनामी । भुक्ति मुक्ति की मात भक्ती भक्त नाथ ऋषि नाथ तू, ऋषि राया भवपाज सांई, ऋण हर अनिवड हाथ तू।। २२॥
- दोहा - ऋते नांव वर्जित सही, वर्जित सकल विभाव। शुद्ध स्वभाव प्रभाव तु, राव भवोदधि नाव 1॥ २३ ॥ ऋते अर्थ वर्जित कहैं, विगरि कहैं जु वित्तीत। विना कहैं रहित जु कहैं, त्यक्त कहैं जु अतीत ।। २४।। ऋते कर्म नोकर्म तू, भाव विभाव वितीत। ऋते युक्ति संसार तू, मुक्त स्वरूप प्रतीत ।। २५ ।।
- कुंडलिया छंद -- अनुभव रूप अकाय तू ऋ सही जु। रायांराय तू, विनु दायाद स्वभाव। विनु दायाद स्वभाव भाव जाके अतिगाढे। ऋते छाय अतिछाय कर्म सव भर्म जु बाड़े। जाके कछु न विकार नहीं जग जार नहीं भव। ऋते क्षोभ अर लोभ नाथ राजै धर अनुभव ।। २६ ।।