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अध्यात्म बारहखड़ी
अति अनंत उपभोगा तैर, अति अनंत वीरज प्रभु नेंरें। असम महासम स्वामी तू ही, तेरी समता तूहि प्रभु ही॥ १० ॥ अति अनंत विकलप हरि मेरे, है अविकलप भजौँ पद तेरे। संकलपा अर सकल विकलपा, तैरै एक न तू हि अकलपा ।।११।। अवनीपति तू परम अतीता, अलख अलेसी देव प्रतीता। सुख जु अतिंद्री देहु सु मोकौं, धोकौं द्रव्य भाव करि तोकौं ।। १२ ।। अजर अमर अज अति थिर रूपा, अचर अचार अकर अतिभपा। अटल विहारी सकल विहारा, अविहारी कित हुन विहारा॥१३॥ अति जग भूषन दूषन दूरा, असरण सरण दयानिधि पूरा। अर अशेष अविशेष गुसांई, तूं हि अमृत्यु अकाल असांई।१४।। अति अचिंत्य अविनासी नामी, चित्तऊँ कैंसँ तोकौं स्वामी। अलं अलं पूरण अत्या , तेरै नांही एक अनर्था ॥१५॥ अर्थ न एक अनर्थी तूं ही, तू हि सुअर्थी अर्थ समूही। अर्थ सकल ए जग के झूठे, तेरै अर्थि जती जग रूठे॥ १६ ।। अदभूत देव तिहारी सोभा, तुम अधिके सव” विनुक्षोभा। अभू स्वभू परमेश्वर तू ही, विभू प्रभू तू सर्व समूही॥१७॥ अति अनंत दीपति भगवंता, अग्रअग्रणी श्री विलसंता। अरज विरज अरुजो तू नाथा, अच्युत देव अवस्थित साथा।। १८ ।। अनुभव देहु मोहि सुखरासी, तू अनुभूति स्वरूप विभासी। अति संगी तू देव असंगा, अतिरंगी तू नाथ अरंगा।।१९।। अति अधर्म नासैं तुव नांमैं, नसैं अकर्म वहुरि नहि जांमैं । अति धर्मी तू धर्म स्वरूपा, अवनी आधिक क्षमाधर भूपा॥२०॥ अप नैं अधिक अमल तू सया, अनुभव अमृत रूप सुभाया। अधिक अनल तें तेज अनंता, अनिल अधिक वल चिदधन संता ।। २१ ।। अर अकास तँ अधिक अलिप्ता, अस्छल अनूप अतुल्य प्रगिता। अहो अहिंस्य अहिंसक स्वामी, सदा अहिंसा रूप सुनामी ।। २२ ।।