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अध्यात्म बारहखड़ी
अनृत अदत असील निवारा, अबलरहित अकिंचन धारा। अदयाभाव न तेरै होई, नहीं असत्य कहै तू कोई ।। २३ ।। अमरण अकरण थिरचर पाला, अक्षय अव्यय अति अघटाला। अजित महा अभिनंदन देवा, अमर अमरपति धारहि सेवा ।। २४॥ अप्राकृत्त असंस्कृत है त, संस्कृती प्राकृत्त कहै तू। अवधि अगम्य सुरम्य महा तू, अपर अपार कहूं न फहा तू॥ २५ ॥ .. अधिकाभिमा अभिलार न ही. तु ही अभीस मुनीश अदूही।
अविज्ञेय अवितर्क अमोघा, तो विनु और सवै जग मोघा ।। २६॥ अधिपत्ति तू अहिपति को त्राता, अधिप तु ही अस्तिति को धाता। अरि रागादिक नासक है ही, असुर न इनसे और कवै ही॥२७॥ अणुब्रत अवर महाबत भास, तू हि विकासै पाप प्रनासै। अध्यातम विनु तू नहि लैये, अमरासुर पुजित तू कैये॥२८॥ अब्रतनासक वृत्त प्रकासा, शुभ न अशुभ तू शुद्ध विभासा। अक्षर तू अक्षर तैं न्यारा, प्रभू अक्षरातीत सुप्यारा ॥२९॥ अग्रज अग्रेश्वरो मुन्यौं को, धीर धनेश्वर धनी धन्यौं कौ। अरुचि असुचि काया तैं जाक्री, भक्ति रूप लै बुद्धि जु ताकी॥३०॥ अतिरस अपरस अरस अगंधा, अवरण अरिण सुअरण अबंधा। शब्दातीत अभीत अशब्दा, अति भवदाह बुझांवन अब्दा॥३१॥ अक्ष न पक्ष न कभी अघों की, रक्षा कर सदा सु सवौं की। अमन अतन तू अतनु प्रहारी, प्रभु अनंग अभंग विहारी॥३२॥ अक्रोधी अभिमान वितीता, अभव अनारज भाव अतीता। असत अमत अततनि तैं न्यारा, अति शुचि अति ही पवित्र सुप्यारा ॥३३॥ अपवित्र न पांवें प्रभु सेवा, नही असंयम रूप सुदेवा। अति तप अति त्यागी अति भागी, भजै अकिंचन साधु विसगी॥३४॥ अति सुशील अति ही सुखदाई, नही अनीति अरीति न भाई। अविनय अनय त6 ए जीवा, तब तोकौं पांचैं सुखपीवा ।। ३५ ॥