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फरसी सम्यक बोध की, नाथ रावरै हाथ । क्यों न फंद काटौ प्रभू, क्यों न देहु निज साथ ।। ४१ ।। फ: कहिये ग्रंथनिविषै फूतकार कौ नाम । फूतकार सरप जु करें, विष भरियो अघ धांम ॥ ४२ ॥ नांम मंत्र तुम्हरों रटें, सर्प माल सम होय । फ: कहिये फुनि नाथ जी, निःफल भाषा सोय ॥ ४३ ॥ निःफल तेरौ भजन नां, फलदायक तू देव | दासनि के कछु कांम नहि, निकामा रस बेव ॥ ४४ ॥ फः प्रवेस की नांम हैं, तोतें ज्ञान प्रवेस | फ: कहिये फुनि कलह कौं, कलह रहित मुनि भेस ॥ ४५ ॥ कलह तजें विनु ज्ञान नहि, ज्ञान विना न अनंद । ज्ञानानंद स्वरूप अदभुत
परमानद ।। ४६ ।
अथ बारा मात्रा एक कबित्त मैं ।
अध्यात्म बारहखड़ी
फल कौं जु दायक तू नायक फणिंद को जु फासि तैं निकारि अर फिरिवौ मिटाय तू । फीटी वात मूढ करि फुनि फुनि धारें देह
दास तेरे हैं विदेह कर्म तैं छुडाय तू । फूस तुल्य भोग भाव फेन तुल्य भूति राव फोरें
फैकट भयौ जु लोक शुद्ध रूप राय तू । तू त्रिभाव भाव, फौरि हरे फौरिनिको, फंद बिनु फः प्रकास नाथ सुखदाय तू ॥ ४७ ॥
दोहा
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तेरी नाथ सफारता, अति विसतीरण शक्ति । सोई पदमा मा रमा, संपति दौलति व्यक्ति ।। ४८ ।।
इति फकार संपूर्ण आर्गै बकार का व्याख्यान करें है।