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सोरठा
अतिशर्मा तू नाथ अतिवर्मा तू देव है । अतिकर्मा वड हाथ हरे, धर्म तैं ही धरे ॥ ९० ॥ अति अलंघ्य गद्रीस अलंक तू कघनिको हौं असमर्थ अधीस, गुन वरनन कैसे करूँ ।। ११ ।। अति हि अलौकिक ईश, लोक न जांनैं तुव गुना । दोष अमंडित धीश अलपित अलप न तू सही ॥ ९२ ॥
अलपबहुत्व सधैँ हि तू भासै अति भास तू । तो कौं सर्व फर्वेहि, अति उज्जल तू देव है ॥ ९३ ॥ अति नागर जगदीस, अति हि उजागर तू सही । अति सागर अवनीश, अति आगर गुन रतन कौ ॥ ९४ ॥ अरिल छंद
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अध्यात्म बारहखड़ी
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नहीं अभव्य सुभाव भव्य भावहु नहीं, तू शुद्धत्व स्वभाव पारनामिक सही । अवलोकन गुनवांन अखिल दरसी तु ही, लहे अपावन नांहि भक्ति तेरी जु ही ॥ ९५ ॥ प्रभू अकर्त्ता तू हि तू हि अकरम सदा, अकरण करण स्वरूप भूप तु अति मुदा । तू हि असंपरदांन दोन दायक महा अपादांन अधिकरण एक तू ही कहा || १६ ॥
अति छायो जु अछाय अजड रूपी तू ही, अमित छाय जगराय पाय तेरे जु ही । से सुर नर नाग तू हि अविभाग हैं, भगवान परम वैराग हैं ॥ ९७ ॥
महाभाग
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त्रोटक छंद
अति
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हि अनुद्धत देव वरो,
अति तू हि अनुज्झित भाव थिरो । अति तू हि अनाव्रत ईश महा, अति तू हि अदुत्ती और कहा ।। ९८ ॥