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अध्यात्म बारहखड़ी
अति तू हि अनामय ईश सही, अति त हि अमै पददायक ही। अति तू हि चिदातम है सुखिया, हम ज्ञान विना अति हि दुखिया॥१९॥ हरि दुष्य सबै करि दास महा, प्रभु तू हि दयाल सुभावगहा। अति तृ हि अनंदी है परमो, अति तू हि अनाकूल है धरमो॥१००। नहि तू हि अनादर जोगि प्रभु, अति ध्येय तु ही जगदीस विभू। नहि भाव अनातम त हि धेरै, अति देव अवाधित भ्रांति हरै॥१०१॥ अवधारन जोगि गिरा तुमरी, अविनासिक भूति प्रसूतिकरी। अक्षयो अव्ययो गुनरासि जु ही, अतिभाव अपूरव वस्तु तु ही॥१०२ ।।
- दोहा - अनुद्वेग तू अगुरलघु, अतिभारी जु अभूल। अनावास अनयास तु, अनौपम्य शिवमूल ॥१०३ ।। तू हि अनुत्कंठित प्र, तिरेसिआ जु अचूक। तेहि जेहि तोकौं भजे, करै करम कौ भूक ॥ १०४।।
- छंद त्रिभंगी - जब लग्गि अतिंद्रिय बोध निरिंद्रिय इंद्रि अनिद्रिय रहित प्रभू। जीवो नहि पावत तोहि न तावत अखिल सुभावत लोक विभू॥ तही जु अवाच्यो मुनिजन जाच्यो कितहु न राच्यौ जगतगुरू। तू अखिल सुवाच्यौ नाथ अजाच्यौं निज मैं राच्या धर्म शुरू ।। १०५ ॥ जे साधु अतंद्रा वसहि जु कंद्रा मत मुनि चंद्रा दिढ जु धरैं। ते जपहि जु तोही है निरमोही छांड सबोही ध्यान करें ।। तू वर अनुभूति धरड़ विभूनी नांहि प्रसूती क्वापि करें। अतिरिक्त विभावो शुद्ध स्वभावो अमित प्रभावो काल हरै।। १०६ ।। अति ही अकलंको ईश चिदको नित्य अपंको कुमति हरो। तृ असम जु नाथो है अति साधो अति वड हाथो सुमति करो ।। तू ही अपरापर है जु मुधाहर पूजि सुधाकर लोकपती | प्रभुजी अतिपात्रो है अतिछात्रो ज्ञान हि मात्रो शुद्ध जती॥१०७ ।।