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अध्यात्म बारहखड़ी
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तेरे प्राण अवोध शुद्ध चैतन्य नि तो विषै।
रवि को नाम जु मित्र तू जु, है साची मित्रा,
अर्क नहीं तो तुल्य में अति सि विव .. अवगम नाम सुज्ञान को अन्हि नाम दिन को सही। अन्हिकरण अवगम मई तू अरुण अहोकरा को तु ही।। ८५॥
असु प्राणनि को नाम तू हि प्रांणनि को त्राता, असुभ्रत प्रांणी जीव, पीव तू जीवनि दाता। तेरे प्रांण न कोई ज्ञान आनंद जु प्राणा,
सुख सत्ता अवबोध शुद्ध चैतन्य सुजाणा। अवधि शुद्धता की जु तू ही अवधि न अवधि न तो विषै। हरऊ अविद्या दै सुविद्या अतिसुगमक तू श्रुति लिखे॥८६॥
अभष भर्फे जे जीव तोहि नहि पावै पापी, अगम गमैं जे नीच तोहि भावे न सतापी। अगम गमक फुनि साधु गम्य जिनकी जु अगम मैं, रमैं अपुन मैं धीर चलन जिनकौं न अमग मैं। उनी लहैं न लहैं मुनी ही, गुनी तोहि ध्याबैं सदा । भनी सुरिति श्रुतिनि माहैं, सुनी न अपकीरति कदा ।। ८७।।
अप्रमत्त अविलीन प्रभू तू अभयजू, अविषय अगम अगोचरनाथ ज्ञान गोचर तू अतिशय । अश्वादिक चतुरंग सेन तजि होय असंगा
भनँ तोहि अवनीश ईश तू धीश अभंगा। तु ही अनागस है अनालस, अलंकार वर्जित सदा। अलंकार सव जगत्त को तृ, नित्य अलंकृत विनु मदा।। ८८ ।।
अति समरथ अविभाव, नाहि तेरै जु अभात्रा, सकल विभाव अभाव भाव तू धर्म प्रभावा। अतिदेवल मैं तू हि तू हि है केवल माही,
लोकालोकनि मांहि नित्य निवसै निज पाही। सही अनाशक्तो जु तू ही, अतिक्षम क्षमकर हैं प्रभू । अतिशम दम यम नियम भासक अति अघहर हरि हर विभृ।। ८९ ।।