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अध्यात्म बारहखड़ी करें मुनि मतिवांन, तो विना सार नहि रहई, . . .
भीग्यो तुव रस माहि, द्वैत भावो नहि लहई। लग्यो तोहि सौ रंग, और वस्तु जु नहि लीनो,
करै कलोल जु सोई, नाम है जलचर मीनो ॥ ४२ ॥ पापी तोकौं ना लहैं, खगमृगमीन हत जु,
जीव दया पालैं प्रभू, ते जन तोहि लहैं जु। ते जन तोहि लहैं जु, होय तेरे निज दासा,
तुव परसाद जिनिंद, पावई तुव पुरि बासा। निद्रा भुख सु जीति, साधु ध्यावे हि प्रतापी,
धरमी तोहि भ® ज, नां लहैं तोकौं पापी ।। ४३ ॥ आंखिनि मीट जु नां लगें, अनिमेषा हैं देव,
तू देवनि को देव है, दै स्वामी निज सेव । दै स्वामी निज सेव, हम जु तो विनु अति भरमें,
तुझहि विसारि दयाल, मूढ़ है बांधे करमें। तू है जगत उधार, तारि अपनें अनुचर गनि,
साधु सुध्यांवहि तोहि, नो लगै मीट जुआंखिनि ।। ४४ ।। मोत जु तो सम और नां, तेरी प्रीत जु साच,
चिंतामणि जगमणि तु ही, और देव सम काच। और देव सम काच, मूढ़ जन तिनकौं सेः,
तेरे भगत अनन्य, तोहि भजि निजरस लेवें। कामजीत मनजीत, नाथ तृ है जगजीत जु,
कहये के जगमीत, औ ना तो सम मीत जु।। ४५ ।। मीठौं भजन जु राव, और न कोई मिष्ट,
मुक्तो बंधन नैं तुही, भव विमुक्त जग इष्ट। भव विमुक्त जग ईष्ट, मुकति को मूल जु तु ही,
मुनिवर ध्यां। तोहि, तू हि है जगत प्रभू ही।