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अध्यात्म बारहखड़ी
२२१ माहिर सब को तू जगराय, तेरे माहिर हैं मुनिराय। जग जन तोहि न जांनि सबै हि, विनु जानें भववन भटक हि।। ३२ ।। माधव तूहिउ माधव भC, मा लक्ष्मी तोकौं नहि तजैं। चिद्रूपा शक्ती अनुभूति, सो लक्ष्मी आनंद विभूति ॥ ३३ ।। अति माधुर्य वैन तू कहैं, तोहि महामुनिवर अति चहै। माल न तो सौ त्रिभुवन माहि, अविनासी तू अतिगुन माहि।। ३४ ।। मित भासी तू अमित अपार, मिष्ट बचन तेरे अति सार। मित्र न तो सौ जग मैं और, तू मिथ्यात हरन जगमार ॥ ३५ ॥ मिाल तोमैं गरिमा, न देता निज मा अनाथ। मिले न मिल्यो मिलि है तुव माहि, परपंच जु तर कछु नांहि ॥३६॥
अमिल मिलापी तू हि दयात्न, मिलै मुनिनि सौं तू हि कृपाल। मिलि जु रहयो सव ही सौं तू हि, सकल व्यापको लोक प्रभू हि ।। ३७।।
-- इन्द्रवज्रा छंद - तेरौं मिलापा कवहू न छूटै, तू ही मिलापी कवह न तृटै। मिटै मिटायो कवह न स्वामी, नाथा अखंडा अति ही सुनामी ।।३८॥ तू हि मिलाफी मुनिवर्ग को हैं, तिष्टै जु नागौंपति सर्ग की है। सर्गा जु स्त्रिष्टी तु ही स्त्रिष्टीनाथा, शुद्ध स्वरूपो पदमा जु साथा ॥३९॥ मित्रो जु तू ही प्रमिताक्षरो है, विशुद्ध भावो परमाक्षरो हैं। मिल्यो न तोसौं इह जीव पापी, तारौं रुल्यो जु अति ही संतापी॥ ४० ॥ तो सौं मिले जे मुनि सिद्ध हुये, लिये न जन्मा कवहू न मूये। कहैं जु मीनध्वज काम नामा, निःकाम तू ही अति धाम रांमा ।। ४१ ।।
- कुंडलिया छंद - मीनौ जनचर नांप है, जल विनु छांडै प्रान,
जैसी प्रीति जु तोहि सौं, करै मुनि मतियांन।