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अध्यात्म बारहखड़ी
छांण जल अर अन्न जु वीण, तेरे दास गृहस्थ प्रवीण। छात जगत को तू भवतार, तेरी छाप गहैं गणधार ।। २३॥ छाद समान जगत के भोग, अभिलाएं अज्ञांनी लोग। छाके रहैं मोहमद पीय, जन्म विगारें मूढ स्वकीय ।। २४ ।। तो विनु मूढ भमैं भव मांहि, भगति माल गूंथें सठ नाहि । छाव भगति माला की दास, तो ढिग मे लैं धरि तुब आस।। २५ ।।
- सवैया - ३१ - छिपानाथ नाथ तू ही, छिपासम माया दूर
भ्रांति को हरन हार जगत को भान है। छिन छिन ध्यान तेरौं करें ध्यांनी आतमज्ञ,
तू ही ज्ञाननाथ लोकालोक को सुजान है। छिक छाक तेरे श्रुति माहि नाहि देखिये जू
___ आदि अंत एक शुद्ध सत्ता को बखान है। छिनक प्रवादी कौ उथापक है तू ही प्रभु
स्यादवाद आगम को धारक प्रवान है ।। २६ ।। छिद्र ते रहित ईस, छिप न छिपायौ धीस,
छिद्र त्यागि तेरौ जस अहनिसि गायए। छिमा को पहार तू ही, छिप शिव दाता देव,
कोटिक छिपाकरा जु नख मैं वतायए। तेरे ध्यान विन छिन जाय जोई वादि गनि,
छिन छिन ध्यान नाथ, तेरौं उर लाइए । छीनमोह छीनदोष, छीनराग छीनरोग,
छीजै नाहि काहू काल गुरनि नैं पायए ॥ २७ ॥ छींक न जंभाई नाथ, छीति नाहि भीति कोऊ,
छीतल न पावें भेद सीतल तृ नाथ है।